Tuesday, September 4, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 16

किसी एक दोस्त की याद आती है और यह मन अतीत के किसी समय में जाकर ठहर जाता है। कभी-कभी कितनी शिद्दत से हम छूट गए क्षणों को वापिस बुला लेना चाहते हैं। 
जो गलतियां हमने कीं, जिनकी वजह से हम अपने एकांत में जार-जार रोए, जिनकी वजह से हमने पता नहीं अपने कितने करीब लोगों को दुख पहुंचाया। अगर छूट गया समय वापिस मिल जाता तो हम सब सही कर लेते। 
यह जानते हुए कि यह कत्तई संभव नहीं है, हम सोचते हैं। 
मैंने एक लड़की के लिए जो लिखा था पहली बार एक कार्ड में और उसकी आंखों का रंग अजीब तरह से परिवर्तित हो गया था, उसे लिखे को बदल देता या वह लिखने में देर न करता।  मैंने प्यार नहीं लिखा था - 'मैंने लिखा था कि शब्द साथ नहीं देते, होंठ सिल जाते हैं, तुम शायद समझ सकती हो कि कुछ न कह सकने का दुख कितना बड़ा होता है।' लिखकर देने के बाद लगा कि मैंने कोई गलती कर दी है। हम ऐसे जमाने में रह  रहे थे जहां लड़कियों से बाद तक कर लेना हमारे जेहन में एक गलती की तरह उभरती थी।
जो मैंने लिखा था सोचता हूं आज तो गलत नहीं लगता लेकिन उसकी आंखों के रंग बदलने के बाद जो प्रतिक्रियाएं मैंने व्यक्त कीं, मौन रहकर या मुखर होकर - वह सचमुच गलत था। मैंने रोज एक प्रेम कविताएं लिखीं- कक्षा के ब्लैक-बोर्ड पर। और एक दिन खूब गुस्से में अपनी एक लिखी कविता को मिटाने के लिए पूरे ब्लैक बोर्ड को मुक्के से मार कर तोड़ दिया। 

ब्लैक बोर्ड शीशे का था और मेरे हाथ खून से सन गए थे। यह सब देखकर वह लड़की कक्षा से ऐसे भागी थी जैसे उसके बाद मैं उसका गला दबा दूंगा। उसके भागने में एक जो डर था और उसकी आंखों में दुख और गुस्से की एक जो परत थी और जो पता नहीं कितने समय से मेरा पीछा करती है। अगर समय को लौटा पाता मैं तो उस लड़की के भय को पसीने की तरह पोंछ देता उसकी आंखों के दुख को कम कर देता।
तब भी कविताएं मेरे लिए खुद को अभिव्यक्त करने का साधन थीं। जो मैं देखता-सुनता और महसूस करता था वही लिखता था। मैं आज भी  अपनी रचना में थोथी कल्पना का इस्तेमाल बहुत कम कर पाता हूं।  
मैंने एक बार गुलाब के फूल को अपने पैरों से कुचला था। पता नहीं कितने दोस्तों को अपने रूखे व्यवहार के कारण अपना दुश्मन बनाया था। अपने घर से जो दूरी बनी वह आज तक कम नहीं हुई है। और यह सब इस कारण हुआ कि एक लड़की ने मेरे लिखे को महत्व नहीं दिया था - मेरी संवेदना के शब्दों ने उसकी आंखों में चमक नहीं पैदा की थी - वह आंखें अजनबी हो गई थीं।
क्या मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मेरे  जेहन में कविता के बीज अंकुरित हुए तो वह एक रिजेक्शन के कारण। मैं ठीक-ठीक इसका उत्तर नहीं पाता। उसके बाद के समय में मैं उर्दू शायरी और गजलों में भटकता रहा।  तीन साल मैंने किसी से ठीक से बात नहीं की। सिर्फ शेरो शायरी  और गजलें पढ़ता रहा। इसी दौरान मैने कई गजलें भी लिखीं। गजलों की जो कुछ तमीज मेरे अंदर है, वो उसी दौरान की दी हुई हैं...।
अगर छूट गए समय को लौटा पाता तो  छूट गए समय में मुझसे आहत लोगों से मैं माफी मांगता और खुद को क्षमा कर पाता। घर में घर के लोगों की तरह रह पाता। .....।
लेकिन कभी-कभी पिता कि वह बात याद आती है जब वे कहते थे कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है उसके पीछे ईश्वर की कोई मंशा छिपी होती है, कि वह अच्छे के लिए ही घटित होता है।  अगर मेरे जीवन में यह सब न घटित हुआ होता, तो हो सकता है कि मैं जेएनयू में चला जाता और भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई बड़ा अदिकारी बन जाता, जो मेरे पिता का सपना था - कि मेरा भी सपना था बहुत दिनों तक वह।  मैं जानता हूं कि वह सब मैं बन जाता - लेकिन कविता-कहानी न लिख पाता । 

आदमी न बन पाता, जिसके लिए मेरे बाबा ने मुझे एक दिन जबरदस्ती गांव से शहर भेज दिया था....।

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