Tuesday, June 25, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 37

सरकारी दफ्तर में एक मामूली अनुवादक के रूप में मेरी सारी महत्वाकांक्षाएं लेखन से ही जुड़ी है - लेखन से महत्वाकांक्षा के जुड़े होने का मतलब लेखन के साथ न्याय के साथ ही स्वयं को लेखन की उस ऊंचाई तक ले जाना है - जहां अपना कुछ महत्वपूर्ण और रेखांकनीय योगदान हो सके। इस महत्वाकांक्षा में पुरस्कार हथियाना शामिल नहीं। (जाहिर है कि महत्वाकांक्षा शब्द से पुरस्कार वगैरह की बू आती है) अगर मिल जाएं तो भी जब तक लेखन से खुद संतुष्ट न हो लूं, उनका कोई अर्थ नहीं।
आज उस मित्र की याद आ रही है जो कहता था कि उसके लिए लेखन से ज्यादा महत्वपूर्ण पुरस्कार है, पुरस्कार पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। एक पुरस्कार देने से एक संस्था के निदेशक ने उसे मना किया तो वह शराब के नशे में उन्हें गालियां बकता और अस्लील एसएमएस करता था।  एक दिन उसने मुझसे कहा था कि विमलेश भाई आज से दस साल बाद लोग यह भूल जाएंगे कि मैंने पुरस्कार लेने के लिए कितना जोड़-तोड़ किया – कितने पापड़ बेले – बस उन्हें यह पुरस्कार याद रहेगा जो मेरे कद को बड़ा करेगा। वह ऐसे ही सोचता था। वह आज ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार और यहां तक कि साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार भी पा चुका है। हालांकि अब वह मुझसे बात नहीं करता लेकिन मुझे कई बार उसकी याद आती है।
मैं कभी कभी सोचता हूं कि पुरस्कार के लिए वह जो कुछ करता रहा है या किया है – वह क्या मैं कर पाऊंगा ? ऐसा नहीं है कि यह कर सकने की योग्यता मेरे पास नहीं – लेकिन यह कर के अपनी रचना को मैं कैसे बचा पाऊंगा। और जब लेखन ही नहीं बचेगा तो पुरस्कार का क्या अर्थ।
इस बात से जरूर संतोष होता है कि भविष्य में जब समकालीन साहित्य को खंगाला जाएगा तो वही बचेगा जिसके पास लेखन की ताकत होगी। लेकिन क्या वे नहीं बचेंगे जिसके पास ढेरों पुरस्कार होंगे?  


जीवन और लेखन दोनों में ही चालबाजी नहीं आई मुझे। इसका अफसोस भी नहीं है – कम से कम इस बात का संतोष है कि मैं अन्य लोगों की तरह नहीं। बहुत लोगों से बहुत आधिक आदमी हूं मैं। और यह आदमी होना कितना जरूरी है – यह मैं सचमुच समझता हूं एक लेखक होने के नाते। लेखन और जीवन लागातार आदमियत की ओर यात्रा ही तो है।

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