आज मुक्तिबोध की याद रह-रह आ रही है। दिन भर सोचता रहा कि ऐसा क्या खास है मुक्तिबोध में कि वे गाहे-बगाहे बेतरह याद आ जाते हैं।
निश्चय ही निराला मेरे प्रिय कवि रहे हैं लेकिन निराला की याद उतनी नहीं आती, जितनी मुक्तिबोध की। निराला को पहले जाना मैंने। मुक्तिबोध को बहुत बाद में। निराला की कुछ कविताएं स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। स्कूल के माट साहेब उनके बारे में कुछ दिलचस्प कहानियां बताते, तब वह बड़ी रूचिकर होतीं और लगता कि एक कवि ऐसा ही होता है, जैसे कि निराला थे।
पहली बार कविता लिखने के बारे में सोचा तो सामने निराला ही चुनौती की तरह खड़े थे। तब कई उनकी बातें समझ के परे थीं। उनके मुकाबले दिनकर और गुप्त जी ज्यादा समझ में आते थे, लेकिन निराला का व्यक्तित्व अपनी ओर खींचता था, एक तरह का जादुई आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। तब सरोज समृति के कुछ अंश मैंने पढ़ डाले थे। मुक्तिबोध नाम का उपन्यास जरूर मैने पढ़ लिया था लेकिन मुक्तिबोध नाम का कोई कवि भी है, यह क्लास के हिन्दी के मास्टर साहब ने कभी नहीं बताया।
माध्यमिक पास करने के बाद हम एच.एस में आये। उस समय कुछ और कवियों से परिचय हुआ जिनमें नागार्जुन का नाम याद है। मुक्तिबोध से जब परिचय हुआ तब मैं कॉलेज में नहीं गया था। मेरे अंदर आइएएस बनने का भूत सवार था, यह हमारे घर और रिश्तेदारों का असर था कि यह सबसे बड़ी नौकरी है और इसे पास करने के बाद सीधा कलेक्टर बना जा सकता है। जब सोच लिया कि सिविल की तैयारी करनी ही है तो सबसे पहले मैंने हिन्दी साहित्य का ही सिलेबस देखा। उसमें 'चांद का मुंह टेढ़ा है' {सिर्फ अंधेरे में}-गजानन माधव मुक्तिबोध - लिखा हुआ मिला।
और लेखक लगभग परिचित थे, सबको हमने पहले की कक्षाओं में पढ़ा था, लेकिन मुक्तिबोध का नाम नया और अटपटा सा लगा। तो एच.एस. में पढ़ते हुए मैंने जो तीन किताबें खरीदीं उनमें 'शेखरः एक जीवनी' और 'कामयानी' के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है' भी शामिल था। पहली बार नाम और बीड़ी पीता हुआ पिचके गालों वाला एक कवि सामने आया। किताब के पन्ने उलटे तो कविताओं के लय और शब्दों ने आकर्षित किया लेकिन बातें बहुत कम समझ में आईं।
चूंकि 'अंधेरे' में कविता सिलेबस में थी इसलिए सबसे पहले उसे ही पढ़ना शुरू किया। सांकल अंधेरा और पता नहीं कितने ही शब्द ऐसे आए जिनसे पहले का परिचय नहीं था। लेकिन मैंने उस कविता को बार-बार पढ़ा। बोर हो-हो कर भी उसे पढ़ा। कविता तो समझ में नहीं आई लेकिन यह कवि एक चुनौती की तरह मेरे सामने खड़ा हो गया। यह दुबला-पतला पिचके गालों वाला आदमी, क्या है इसके मन में - कविता कहां से आती है - इसके यहां। मैं पढ़ते हुए हर बार सोच में पड़ जाता।
निश्चय ही निराला मेरे प्रिय कवि रहे हैं लेकिन निराला की याद उतनी नहीं आती, जितनी मुक्तिबोध की। निराला को पहले जाना मैंने। मुक्तिबोध को बहुत बाद में। निराला की कुछ कविताएं स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। स्कूल के माट साहेब उनके बारे में कुछ दिलचस्प कहानियां बताते, तब वह बड़ी रूचिकर होतीं और लगता कि एक कवि ऐसा ही होता है, जैसे कि निराला थे।
पहली बार कविता लिखने के बारे में सोचा तो सामने निराला ही चुनौती की तरह खड़े थे। तब कई उनकी बातें समझ के परे थीं। उनके मुकाबले दिनकर और गुप्त जी ज्यादा समझ में आते थे, लेकिन निराला का व्यक्तित्व अपनी ओर खींचता था, एक तरह का जादुई आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। तब सरोज समृति के कुछ अंश मैंने पढ़ डाले थे। मुक्तिबोध नाम का उपन्यास जरूर मैने पढ़ लिया था लेकिन मुक्तिबोध नाम का कोई कवि भी है, यह क्लास के हिन्दी के मास्टर साहब ने कभी नहीं बताया।
माध्यमिक पास करने के बाद हम एच.एस में आये। उस समय कुछ और कवियों से परिचय हुआ जिनमें नागार्जुन का नाम याद है। मुक्तिबोध से जब परिचय हुआ तब मैं कॉलेज में नहीं गया था। मेरे अंदर आइएएस बनने का भूत सवार था, यह हमारे घर और रिश्तेदारों का असर था कि यह सबसे बड़ी नौकरी है और इसे पास करने के बाद सीधा कलेक्टर बना जा सकता है। जब सोच लिया कि सिविल की तैयारी करनी ही है तो सबसे पहले मैंने हिन्दी साहित्य का ही सिलेबस देखा। उसमें 'चांद का मुंह टेढ़ा है' {सिर्फ अंधेरे में}-गजानन माधव मुक्तिबोध - लिखा हुआ मिला।
और लेखक लगभग परिचित थे, सबको हमने पहले की कक्षाओं में पढ़ा था, लेकिन मुक्तिबोध का नाम नया और अटपटा सा लगा। तो एच.एस. में पढ़ते हुए मैंने जो तीन किताबें खरीदीं उनमें 'शेखरः एक जीवनी' और 'कामयानी' के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है' भी शामिल था। पहली बार नाम और बीड़ी पीता हुआ पिचके गालों वाला एक कवि सामने आया। किताब के पन्ने उलटे तो कविताओं के लय और शब्दों ने आकर्षित किया लेकिन बातें बहुत कम समझ में आईं।
चूंकि 'अंधेरे' में कविता सिलेबस में थी इसलिए सबसे पहले उसे ही पढ़ना शुरू किया। सांकल अंधेरा और पता नहीं कितने ही शब्द ऐसे आए जिनसे पहले का परिचय नहीं था। लेकिन मैंने उस कविता को बार-बार पढ़ा। बोर हो-हो कर भी उसे पढ़ा। कविता तो समझ में नहीं आई लेकिन यह कवि एक चुनौती की तरह मेरे सामने खड़ा हो गया। यह दुबला-पतला पिचके गालों वाला आदमी, क्या है इसके मन में - कविता कहां से आती है - इसके यहां। मैं पढ़ते हुए हर बार सोच में पड़ जाता।
उस समय कोलकाता में मेरे परिचय का कोई मित्र ऐसा नहीं था जिससे मैं अपनी परेशानी बताता, पिता जी के लिए कविता रामचरितमानस और रश्मिरथी से ज्यादा न थी। मां तो अछर चिन्हना भी भूल चुकी थी। मुझे लग रहा था कि हिन्दी में लिखी हुई कविता अगर मैं नहीं समझ पा रहा हूं तो और चीजें मेरी समझ में कैसे आएंगी, फिर तो सिविल गया काम से और जो सपने और आस मेरे घर वाले मुझसे लगाए बैठे हैं, उनका टूटना मेरे सामने प्रकट हो जाता और फिर से उस कविता को समझने का प्रयास शुरू कर देता था। लेकिन कविता तो समझ में नहीं आई कविता का एक अंश मुझे याद हो आया जो अपेछाकृत आसान था - अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। मैं यह सवाल अपने आप से पूछता कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया - इस मुरियल-से बीड़ी पीते हुए कवि की कविता तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है।
तो मुक्तिबोध की कविताएं मेरे सामने एक आतंक की तरह आईं और यह कवि अपने साधारण (?) व्यक्तित्व से डराता हुआ। कॉलेज में गया। वहां मुक्तिबोध बकायदा सिलेबस में शामिल थे। एक प्रोफेसर साहब का कहना था कि मुक्तिबोध को पढ़ाने के लिए लोग अपने सिनियर से उनकी कविताएं पढ़ कर जाते हैं। जैसे केशव को लोग कठिन काव्य का प्रेत कहते थे - कुछ-कुछ उसी तरह का इंप्रेशन मुक्तिबोध को लेकर हमारे अद्यापकों में था। मैं पहले से ही डरा हुआ था- कॉलेज और युनिवर्सिटि में लोगों ने और डराया।
मैंने मान लिया कि यह कवि अपने समझ के बाहर है। क्योंकि मुक्तिबोध को पढ़ाते हुए अद्यापकों के चेहरों पर भी एक अजीब तरह का तनाव मैं देखता और वे जल्दी-जल्दी अपनी बातें कहते हुए आगे बढ़ते - हमारे मन में सैकड़ों सवाल सुलगते रह जाते और पिरियड समाप्त हो जाती।
मेरी एक दोस्त थी सीमा। मुक्तिबोध उसके प्रिय कवि थे। वह ऐसा ही कहती। मैं संकोचवश नहीं कह पाता था कि वे मेरी समझ में नहीं आते क्योंकि मैं एक अच्छा विद्यार्थी समझा जाता था और आनर्स में मैंने यूनिवर्सिटी टॉप किया था।
मैंने सोचा एक दिन कि इस लड़की को टटोला जाय कि आखिर यह कुछ समझती भी है या यूं ही टपला मार रही है। मैंने पूछा कि मुक्तिबोध को कैसे समझती हो। उसका जावाब था कि मुक्तिबोध को समझने के लिए तुम्हारे अंदर आम आदमी के प्रति सच्ची सहनुभूति और कुछ करने की हिम्मत चाहिए। बेचारगी ओढ़े हुए और अपना काम निकालने की फिराक में रहने वाले लोगों को मुक्तिबोध कभी समझ में नहीं आएंगे। मुक्तिबोध को यह सोचकर पढ़ोगे कि वे तुम्हारे सिलेबस में हैं तो वे कभी समझ में नहीं आएंगे। तुम्हे मुक्तिबोध को पढ़ने के पहले उनको समझना होगा जिनके लिए वे लिख रहे थे, लिख ही नहीं रहे थे - अंदर तक बेचैन भी थे। फिर उसने कई कविताएं पढ़कर सुनाई और कहा कि इसमें क्या है जो तुम्हारी समझ में नहीं आता।
बाद में मैंने मुक्तिबोध को उसी तरह पढ़ना शुरू किया और अब मुक्तिबोध उतने कठिन नहीं लगते। मुक्तिबोध की ताकत उनकी कविताएं नहीं वह शक्शियत है, जो अपाद-मस्तक इमानदार थी और आम आदमी के लिए प्रतिबद्ध भी। एक मध्यवर्गीय आदमी कलाकार होकर, ट्रू कलाकार होकर जिन बिडंबनाओं से गुजरता है, मुक्तिबोध भी उससे गुजर रहे थे। वे सिर्फ कविता नहीं लिख रहे थे कविता को जी भी रहे थे। यही कारण है कि मुक्तिबोध कभी-कभी बेतरह और शिद्दत से याद आते हैं - और हमारी लेखनी पर फिर-फिर सोचने के लिए मजबूर कर जाते हैं...।
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