एक खाली और उदास दिन। कुछ-कुछ वैसा जैसा निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलता है। लगता है जैसे हम एक बहुत बड़े शून्य का हिस्सा हो गए हैं - बल्कि एक शून्य में बदल जाते हैं। सारी संवेदनाएं कहीं ठहर सी जाती हैं शायद दिमाग के किसी गुप्त गुफा में - शायद आराम करने के मूड में। आपको देखकर तब कोई भी किसी दूसरे ग्रह का जीव समझने की भूल कर सकता है।
कई बार सोचता हूं कि यह खालीपन यह उदासी कहां से आती है, जबकि दूर-दूर तक कोई तात्कालिक कारण नजर नहीं आता। पर यह उदासी आती है और टिक रहती है। अब वह कितने दिन रहेगी, यह उसकी मरजी के उपर है। आप चाहकर उसे हटा नहीं सकते - मन को निचोड़-समेट कर किसी दूसरी जगह नहीं ले जा सकते।
क्या सिर्फ ऐसा किसी रचनाकार के साथ ही होता है, किसी कलाकार के साथ - या हर कोई इस अनुभव से गुजरता है। मुझे याद आता है कि इस तरह का अंतराल-यह उदासी और खालीपन - पता नहीं किन समयों से मेरे पास आती रही है। तब रचना - कला और कई चीजों की मेरी समझ एकदम न के बराबर थी। कि नहीं ही थी। तब मैं जाकर किसी पेजड के नीचे बैठ जाता था और घंटो उसकी पत्तियां गिना करता था। बरसात का दिन हुआ तो पानी भरे गड़हे में ढेला फेंकना आम बात थी। खेत की कभी न खत्म होने वाली पगडंडियां थी जिनसे होते हुए मैं गांव के सिवान तक पहुंच जाता था। कभी-कभी मन करता कि वहां जाऊं जहां बादल जमीन को छू रहे होते हैं। जबकि और सारे बच्चे खेल रहे होते थे और मैं उदास भटकता रहता था गांव के बियाबानों में।
तब नहीं जानता था कि यह क्यों हो रहा है। जानता तो अब भी नहीं हूं। क्या पकृति हमें इस तरह उदास और अकेला कर के हमें निरंतर गढ़ती रहती है। जैसे कोई मूर्तिकार कोई मुर्ति गढ़ता है, या कुम्हार वर्तन गढ़ता है।
सोच के असंख्य छोरों तक जाता है यह मन और खाली हाथ वापिस लौट आता है।जब हार-थक जाता है तो कोई एक शब्द उभरता है जेहन में उसका हाथ पकड़ कर हम एक छोटी या बहुत लंबी यात्रा करते हैं - कविता कुछ-कुछ ऐसे ही बनती है। क्या ऐसे ही जन्म लेती हैं कलाएं।
हम अपनी पीड़ा में एक यात्रा पर निकल पड़ते हैं और हमारी यात्राओं के चिन्हों को कविता -कहानी और कला समझा जाता है...।
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