सबसे अधिक दुख उन्हीं से मिलता है, जिन्हें आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। लेकिन वह क्या है कि आप बार-बार आहत होकर भी उस प्यार को बचाना चाहते हैं। आहत होने के बाद भी आप चुप हो जाते हैं, छोड़ देते हैं कि देखें वह कितना और आहत कर सकता है।
महात्मा गांधी ने एक बात कही थी - मनुष्य को परिवर्तित किया जा सकता है। मौन रहकर उसे सहकर। उसे सही सलाह और सही परिस्थितियां देकर। हृदय परिवर्तन जैसा कुछ कहते थे वे। बाद में प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में इसका उपयोग किया। लेकिन मैंने भी इसका उपयोग किया, मतलब मैंने कोशिश की कि एक इंसान का हृदय परिवर्तन हो जाए, लेकिन सालों कोशिश के बाद मैं लेस मात्र भी उसे बदल नहीं सका।
अब मैं शिद्दत से सोचता हूं कि एक इंसान के दिमागी संरचना को कोई भी नहीं बदल सकता - कुछ देर के लिए वह बदला हुआ भले प्रतीत हो लेकिन वह अंततः वही रहता है, जो वह है। किसी खास परिस्थिति में वह बदला हुआ व्यवहार कर सकता है, लेकिन ज्यूं ही परिस्थितियां बदलती हैं, वह आपने स्वभाविक रूप में आ जाता है।
आज इतने सालों बाद मुझे अहसास हो रहा है कि गांधी के उस फार्मुले ने मुझे इतने दिनों तक गुमराह किया। अगर वह फार्मुला नहीं होता तो किसी एक को बदलने के लिए मैं अपना सबकुछ दांव पर न लगाता।
संबंध आपको मुक्त नहीं करते-चारों ओर से बांधते और घेरते हैं- जबकि उन्हें मुक्त करना चाहिए - एक स्वस्थ जीवन के लिए यह जरूरी है। पता नहीं हमारी संस्कृति में सदियों से ऐसा क्या रहा है कि हम यह सबकुछ जानते हुए भी बंधते हैं और जीवन पर निराशा और पीड़ा में भटकते रहते हैं। मुक्ति का कहीं आसरा नहीं।
वह साहित्य जिसके ताने देते हैं लोग - दोस्त- यार- आस-पास के लोग। वह भी अंततः एक दूरी बनाकर मिलना शुरू कर देता है हमसे।
हम पूछना चाहते हैं अपनी कविताओं से बहुत कुछ। लेकिन वे मौन रहती हैं। जड़।
हमने लेखक होने की बड़ी किमतें चुकाई हैं, फिर भी न लिखना हमें मंजूर नहीं। ऐसा ही कुछ नियति है हमारी.....फितरत भी शायद...।
महात्मा गांधी ने एक बात कही थी - मनुष्य को परिवर्तित किया जा सकता है। मौन रहकर उसे सहकर। उसे सही सलाह और सही परिस्थितियां देकर। हृदय परिवर्तन जैसा कुछ कहते थे वे। बाद में प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में इसका उपयोग किया। लेकिन मैंने भी इसका उपयोग किया, मतलब मैंने कोशिश की कि एक इंसान का हृदय परिवर्तन हो जाए, लेकिन सालों कोशिश के बाद मैं लेस मात्र भी उसे बदल नहीं सका।
अब मैं शिद्दत से सोचता हूं कि एक इंसान के दिमागी संरचना को कोई भी नहीं बदल सकता - कुछ देर के लिए वह बदला हुआ भले प्रतीत हो लेकिन वह अंततः वही रहता है, जो वह है। किसी खास परिस्थिति में वह बदला हुआ व्यवहार कर सकता है, लेकिन ज्यूं ही परिस्थितियां बदलती हैं, वह आपने स्वभाविक रूप में आ जाता है।
आज इतने सालों बाद मुझे अहसास हो रहा है कि गांधी के उस फार्मुले ने मुझे इतने दिनों तक गुमराह किया। अगर वह फार्मुला नहीं होता तो किसी एक को बदलने के लिए मैं अपना सबकुछ दांव पर न लगाता।
संबंध आपको मुक्त नहीं करते-चारों ओर से बांधते और घेरते हैं- जबकि उन्हें मुक्त करना चाहिए - एक स्वस्थ जीवन के लिए यह जरूरी है। पता नहीं हमारी संस्कृति में सदियों से ऐसा क्या रहा है कि हम यह सबकुछ जानते हुए भी बंधते हैं और जीवन पर निराशा और पीड़ा में भटकते रहते हैं। मुक्ति का कहीं आसरा नहीं।
वह साहित्य जिसके ताने देते हैं लोग - दोस्त- यार- आस-पास के लोग। वह भी अंततः एक दूरी बनाकर मिलना शुरू कर देता है हमसे।
हम पूछना चाहते हैं अपनी कविताओं से बहुत कुछ। लेकिन वे मौन रहती हैं। जड़।
हमने लेखक होने की बड़ी किमतें चुकाई हैं, फिर भी न लिखना हमें मंजूर नहीं। ऐसा ही कुछ नियति है हमारी.....फितरत भी शायद...।