Friday, January 18, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी-36

केदार पर लिखते हुए कुछ बातें मन में साफ हुईं। कुछ प्रश्न भी उभरे। 

प्रश्नों के बिना क्या जीवन की कल्पना की जा सकती हैं ?

जरा सोचिए कि हमारे मतिष्क का वह सिरा अलग कर दिया जाए जिसमें प्रश्न उभरते हैं, तो हम कैसे हो जाएंगे। 
हम चुपचाप सुनेंगे - ढेर सारी किताबें पढ़ेंगे - लेकिन हमारे जेहन में कोई प्रश्न उभर कर नहीं आएगा।  
वह कैसी स्थिति होगी - प्रश्नों के बिना हम कैसे?

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