Monday, September 24, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-24

कभी-कभी शून्य सा घिर आता है। सबके साथ रहते हुए भी आप किसी के साथ नहीं होते। मन किसी अथाह समय में जाकर ठहर जाता है। आप बोलते-चालते रहते हैं, हूं, हां करते रहते हैं। 
समाने वाला समझ भी नहीं पाता कि आप कहीं और हैं।

क्या हर लेखक को इस तरह की शून्यता से गुजरना होता है।  और जब जबरदस्ती वहां से कोई खींचकर लाता है तो आपके अंदर एक अजीब सी खीझ उभरती है। उस खीझ का रहस्य क्या आपके आस-पास के लोग कभी समझ पाएंगे। उन्हें लगता है कि आप किसी निश्चित बात या घटना के उपर खीझे हुए हैं, लेकिन दरअसल ऐसा होता नहीं। आपकी खीझ एक ऐसी अनजान चीज पर होती है, जिसका ठाक-ठीक आपको भी पता नहीं होता।

क्या ऐसे समय में एक लेखक को कहीं दूर एक ऐसी जगह पर नहीं चले जाना चाहिए जहां वह एकदम अकेले उस अथाह समय के साथ रह सके। यह रहना एक रचनाकार और कलाकार के लिए भी कितना जरूरी होता है, इस बात को कितने कम लोग समझ पाते हैं।

क्या कभी कोई ऐसा समय आएगा जब मैं अपने उस अथाह समय के साथ जितनी देर चाहूं रह सकूं। और लौटूं तो मेरे जेहन में शब्दों की एक भारी गठरी हो। वह गठरी जो अब धीरे-धीरे खाली हो रही है। 

उसे भरने का कोई और उपाय भी है क्या...?

समझ में नहीं आता......।

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