1.
केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका कारण यह नहीं है कि मेरा शोध-कार्य केदार जी पर
ही है। इसका कारण उनकी कविताएं हैं जो
जादू की तरह असर करती हैं। केदार की
कविताएं
मुक्तिबोध की तरह कठिन भी नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि
में मुझे मिलता
है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए आपको एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने
लगता है, - नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी।
केदार जी कि कविताएं एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है। वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए रहते हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह 'कवि' भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा 'बड़ा कवि' तो कहीं से भी नहीं हो सकता। डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र करते हैं कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते हैं कि साठ के बाद जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश पर इस विश्वबोध का चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और जाहिर है कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत सारे कवि होंगे - जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की मार्फत हम केदार को जानते हैं उनमें तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह हल चलाते हुए दिखता है और उसे खैनी की तलब लगी है। पानी में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-.समय पर अपने कंधे पर झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो है ही कि उनके यहां लोक और नागर के बीच लोक संस्कृति और आधुनिकता के बीच एक द्वद्व, एक 'क्लैश' भी दिखायी पड़ता है और यह उद्देश्यहीन नहीं है।
इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता का विकास भी अपने तरीके से ठेठ भारतीय संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं - आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया की पहचान और पुनरावलोकन हमें भारतीय संदर्भ में करना चाहिए। उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस खत्म हो गई है लेकिन आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए । आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का उद्घाटन करते हुए लिखते हैं कि हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे संघर्ष के बावजूद भी, अपने मूल्यों और आचरण में सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है। अपने सारे मानववाद के बावजूद, हम एक जाति विशेष के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और छत-विछत होती है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच भी शामिल है।
कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें 'लालमोहर' कहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि इस दृष्टि से जब हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे तो जो हमें मिलेगा वह बकौल केदारनाथ सिंह -
इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू
और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी
तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा
जिसपर तुम बैठ सकते हो
पत्थर को छुओ
तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा
एक पत्ता उठा लो
और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में
खून की तरह बह रहे हो
तुम बाहर निकलोगे
और तुम्हे सूरज मिल जाएगा।
.....
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