Friday, September 28, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-26

सबसे अधिक दुख उन्हीं से मिलता है, जिन्हें आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। लेकिन वह क्या है  कि आप बार-बार आहत होकर भी उस प्यार को बचाना चाहते हैं। आहत होने के बाद भी आप चुप हो जाते हैं, छोड़ देते हैं कि देखें वह कितना और आहत कर सकता है।  

महात्मा गांधी ने एक बात कही थी - मनुष्य को परिवर्तित किया जा सकता है। मौन रहकर उसे सहकर। उसे सही सलाह और सही परिस्थितियां देकर। हृदय परिवर्तन जैसा कुछ कहते थे वे। बाद में प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में इसका उपयोग किया। लेकिन मैंने भी इसका उपयोग किया, मतलब मैंने कोशिश की कि एक इंसान का हृदय परिवर्तन हो जाए, लेकिन सालों कोशिश के बाद मैं लेस मात्र भी उसे बदल नहीं सका।

अब मैं शिद्दत से सोचता हूं कि एक इंसान के दिमागी संरचना को कोई भी नहीं बदल सकता - कुछ देर के लिए वह बदला हुआ भले प्रतीत हो लेकिन वह अंततः वही रहता है, जो वह है। किसी खास परिस्थिति में वह बदला हुआ व्यवहार कर सकता है, लेकिन ज्यूं ही परिस्थितियां बदलती हैं, वह आपने स्वभाविक रूप में आ जाता है।

आज इतने सालों बाद मुझे अहसास हो रहा है कि गांधी के उस फार्मुले ने मुझे इतने दिनों तक गुमराह किया। अगर वह फार्मुला नहीं होता तो किसी एक को बदलने के लिए मैं अपना सबकुछ दांव पर न लगाता।

संबंध आपको मुक्त नहीं करते-चारों ओर से बांधते और घेरते हैं- जबकि उन्हें मुक्त करना चाहिए - एक स्वस्थ जीवन के लिए यह जरूरी है। पता नहीं हमारी संस्कृति में सदियों से ऐसा क्या रहा है कि हम यह सबकुछ जानते हुए भी बंधते हैं और जीवन पर निराशा और पीड़ा में भटकते रहते हैं। मुक्ति का कहीं आसरा नहीं। 

वह साहित्य जिसके ताने देते हैं लोग - दोस्त- यार- आस-पास के लोग। वह भी अंततः एक दूरी बनाकर मिलना शुरू कर देता है हमसे।

हम पूछना चाहते हैं अपनी कविताओं से बहुत कुछ। लेकिन वे मौन रहती हैं। जड़।

हमने लेखक होने की बड़ी किमतें चुकाई हैं, फिर भी न लिखना हमें मंजूर नहीं। ऐसा ही कुछ नियति है हमारी.....फितरत भी शायद...।

Thursday, September 27, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-25

कल एक विद्यालय में कविता आवृति प्रतियोगिता का निर्णय करने जाना है। कविता आवृति का चलन बंगाल में ज्यादा है, और यह मुझे अच्छा लगता है। कई दिनों कार्यालय में व्यस्त रहा। पूरे आयोजन की अच्छी बात यह रही कि कृपाशंकर चौबे  ने एक अच्छा वक्तव्य दिया और उषा गागंली का नाटक पहली बार देख पाया। नाटक अच्छा रहा। अपने थियेटर के दिन याद आए।
अब कल से डायरी में कुछ अपनी बातें लिखूंगा।
अस्तु..।

Monday, September 24, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-24

कभी-कभी शून्य सा घिर आता है। सबके साथ रहते हुए भी आप किसी के साथ नहीं होते। मन किसी अथाह समय में जाकर ठहर जाता है। आप बोलते-चालते रहते हैं, हूं, हां करते रहते हैं। 
समाने वाला समझ भी नहीं पाता कि आप कहीं और हैं।

क्या हर लेखक को इस तरह की शून्यता से गुजरना होता है।  और जब जबरदस्ती वहां से कोई खींचकर लाता है तो आपके अंदर एक अजीब सी खीझ उभरती है। उस खीझ का रहस्य क्या आपके आस-पास के लोग कभी समझ पाएंगे। उन्हें लगता है कि आप किसी निश्चित बात या घटना के उपर खीझे हुए हैं, लेकिन दरअसल ऐसा होता नहीं। आपकी खीझ एक ऐसी अनजान चीज पर होती है, जिसका ठाक-ठीक आपको भी पता नहीं होता।

क्या ऐसे समय में एक लेखक को कहीं दूर एक ऐसी जगह पर नहीं चले जाना चाहिए जहां वह एकदम अकेले उस अथाह समय के साथ रह सके। यह रहना एक रचनाकार और कलाकार के लिए भी कितना जरूरी होता है, इस बात को कितने कम लोग समझ पाते हैं।

क्या कभी कोई ऐसा समय आएगा जब मैं अपने उस अथाह समय के साथ जितनी देर चाहूं रह सकूं। और लौटूं तो मेरे जेहन में शब्दों की एक भारी गठरी हो। वह गठरी जो अब धीरे-धीरे खाली हो रही है। 

उसे भरने का कोई और उपाय भी है क्या...?

समझ में नहीं आता......।

Saturday, September 22, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी -23

उसने कहा - तुम बुद्धु हो।
मैंने कहा - मैं बुद्धु हूं। मुझे शातिर नहीं बनना।
इसलिए ही तुम अच्छे लगते हो - उसने कहा।
अच्छा लगता हूं, बुद्धु लोग सबको अच्छे लगते हैं,  लेकिन कोई प्यार नहीं करता- मैंने कहा।

वो तो इसलिए प्यार नहीं करता कि तुम कविताओं से प्यार करते हो - उसने कहा।

ठीक है लौटता हूं मैं अपनी कविताओं के पास तब - मैंने कहा।

और चुपचाप लौट आया...।

एक गुमनाम लेखक की डायरी-22

केदार जी की कविताएं पढ़ते समय हमें यह कभी नहीं लगता कि हम कोई लयमुक्त या  छंदहीन कविता पढ़ रहे हैं। कहने की बात नहीं कि केदार जी ने लिखने की शुरूआत छंदबद्ध कविताओं से की थी और एक समय उनके गीत सुनने के लिए लोग सभागारों में बैठे इंतजार करते रहते थे। उन गीतों में क्या था कि नवगीत के पुरोधा कवियों के बीच भी केदार को अलग से सुनने का मन करता था। मेरी समझ से केदार जी के गीतों में एक तरह की भाषिक नवीनता तो थी ही, साथ ही उसमें उसमें अपने लोक, अपने अंचल की वाणी भोजपुरी की मिठास भी शामिल थी। अलावा इसके केदार जी के पास सर्वथा नूतन एक आधुनिक दृष्टि थी जो उनकी कविता में एक तरह की नवीनता के साथ जादू जैसा कुछ पैदा करती थी। 

केदार जी एक इंटरव्यू में याद करते हैं कि कविता से पहला परिचय उन्हें गांव में औरतों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों की मार्फत हुआ। वे कहते हैं कि सुबह-सुबह अधनींदी अवस्था में कई बार कानों में भोजपुरी के लोक गीत सुनने को मिलते थे - उन गीतों का असर आज भी मेरे लेखन में है, इसे मैं कितना भी चाहूं, अस्वीकार नहीं कर सकता। उन गीतों में क्या जादू है, यह तो वही समझ सकता है, जो गांव में रहा हो और उस जिंदा जादू को पत्यछ देखा-सुना हो। केदार की कविताओं में एक तरह की सहजता के साथ जो जादू है, कहीं न कहीं उसका उत्स वे लोक गीत ही हैं, जिन्होंने केदार को कहीं गहरे प्रभावित किया है।

उनकी बोलने-बतियाने और उसी जौरान कोई गूढ़ बात कह देने की शैली भी रेखांकित करने लायक है। कई बार वे पाठकों से बातचीत के लहजे में कविता की शुरूआत करते हैं, कई बार पाठक से सवाल करते हैं कि अब क्या किया जाए, कि अब आप ही बताएं कि  अब  तो यह तय करना मुश्किल है इत्यादि। तात्पर्य यह कि उनके लिए पाठक कविता के बाहर की कोई वस्तु नहीं है, वे हर कविता के साथ पाठक को शामिल करते चलते हैं, जैसे कोई बच्चा इधर-उधर न जाए इसलिए उसका अभिभावक अपनी उंगली पकड़ा देता है। एक बार बच्चे ने उंगली पकड़ ली तो अभिभावक अपनी रौ  में अपनी राह चलता जाता है। केदार की कविता की रचना प्रक्रिया को इसी तरह समझने की जरूरत हमें महसूस होती  है।

उपर केदार जी के लोक गीतों से जुड़ाव की बातें कही गई हैं। भोजपुर अंचल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो लोक गीतों से अपना जुड़ाव न रखता हो। यह अलग बात है कि अब वे परंपराएं मिट रही हैं और लोक गीतों के नाम पर कुछ फूहड़ और अश्लील गीत ही बाजार में रह गए हैं। लेकिन केदार जी का जो समय रहा है, उस समय भोजपुरी लोकगीतों  में एक समृद्ध साहित्यिक एवं काव्यात्मक  तत्व दिखायी पड़ता है। भोजपुरी लोक गीतों के महानायक भिखारी ठाकुर के बारे में केदार जी के संस्मरणों को पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि केदार जी का लोक और लोक गीतों से कितना गहरा जुड़ाव रहा है। यह गौर तलब है कि अपनी कविता की किताब 'उत्तर कबीर व अन्य कविताएं' में केदार जी ने भिखारी ठाकुर नाम से एक बहुत ही मार्मिक कविता भी लिखी है। 

नई कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर नामक संस्मरणात्मक लेख उपरोक्त बातों की पुष्टि करता है। तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केदार जी की शुरूआती कविताएं लयबद्ध हैं, उनमें गीतात्मकता है। हमारा कहने का मतलब यह है कि यह लयात्मकता और गीतात्मकता की गूंज हमें केदार जी की हर कविता में सुनाई पड़ती है। इसलिए जब हम आज की उनकी  कविताएं पढ़ते हैं, तब भी हमें लोकगीतों की लय और गीत की मिठास की गूंज उनकी कविताओं में सुन पाते हैं। यही केदार की कविता का जादू है तो सिर चढ़कर बोलता है और यही कारण है कि एक पूरी पीढ़ी उनकी कविताओं से प्रभावित है और पाठकों के बीच उनकी कविताएं असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं।

Thursday, September 20, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 21



1.   

केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका कारण  यह नहीं है कि  मेरा शोध-कार्य केदार जी पर ही है। इसका कारण उनकी कविताएं हैं जो जादू की तरह असर करती हैं। केदार की कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन भी नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में मुझे मिलता है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए आपको एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने लगता है, - नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी।


केदार जी कि कविताएं  एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है। वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए रहते हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं  गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह 'कवि' भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा 'बड़ा कवि' तो कहीं से भी नहीं हो सकता। डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र करते हैं कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते हैं कि साठ के बाद जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश पर इस विश्वबोध का चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और जाहिर है कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत सारे कवि होंगे - जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की मार्फत हम केदार को जानते हैं उनमें तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह हल चलाते हुए दिखता है और उसे खैनी की तलब लगी है। पानी में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-.समय पर अपने कंधे पर झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो है ही कि उनके यहां लोक और नागर  के बीच लोक संस्कृति और आधुनिकता के बीच एक द्वद्व, एक 'क्लैश' भी दिखायी पड़ता है और यह उद्देश्यहीन नहीं है। 

इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता का विकास भी अपने तरीके से ठेठ भारतीय संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं - आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया  की पहचान और पुनरावलोकन हमें  भारतीय संदर्भ में करना चाहिए।  उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस खत्म हो गई है लेकिन  आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति  पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए । आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का  उद्घाटन करते हुए लिखते हैं कि  हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे संघर्ष के बावजूद भी, अपने  मूल्यों और आचरण में  सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है।  अपने सारे मानववाद के बावजूद, हम एक जाति विशेष के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और छत-विछत होती है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच भी शामिल है। 


कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें 'लालमोहर' कहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि इस दृष्टि से जब हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे  तो जो हमें मिलेगा वह बकौल केदारनाथ सिंह -

इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू
और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी
तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा
जिसपर तुम बैठ सकते हो
पत्थर को छुओ
तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा
एक पत्ता उठा लो
और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में 
खून की तरह बह रहे हो
तुम बाहर निकलोगे 
और तुम्हे सूरज मिल जाएगा। 
..... 






Tuesday, September 11, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 20

आज  मुक्तिबोध की याद रह-रह आ रही है। दिन भर सोचता रहा कि ऐसा क्या खास है मुक्तिबोध में कि वे गाहे-बगाहे बेतरह याद आ जाते हैं। 

निश्चय ही निराला मेरे प्रिय कवि रहे हैं लेकिन निराला की याद उतनी नहीं आती, जितनी मुक्तिबोध की। निराला को  पहले जाना मैंने। मुक्तिबोध को बहुत बाद में। निराला की कुछ कविताएं स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। स्कूल के माट साहेब उनके बारे में कुछ दिलचस्प कहानियां बताते, तब वह बड़ी रूचिकर होतीं और लगता कि एक कवि ऐसा ही होता है, जैसे कि निराला थे। 

पहली बार कविता लिखने के बारे में सोचा तो सामने निराला ही चुनौती की तरह खड़े थे। तब कई उनकी बातें समझ के परे थीं। उनके मुकाबले दिनकर और गुप्त जी ज्यादा समझ में आते थे, लेकिन निराला का व्यक्तित्व अपनी ओर खींचता था, एक तरह का जादुई आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। तब सरोज समृति के कुछ अंश मैंने पढ़ डाले थे। मुक्तिबोध नाम का उपन्यास जरूर मैने पढ़ लिया था लेकिन मुक्तिबोध नाम का कोई कवि भी है, यह क्लास के हिन्दी के मास्टर साहब ने कभी नहीं बताया। 

माध्यमिक पास करने के बाद हम एच.एस में आये। उस समय कुछ और कवियों से परिचय हुआ जिनमें नागार्जुन का नाम याद है। मुक्तिबोध से जब परिचय हुआ तब मैं कॉलेज में नहीं गया था। मेरे अंदर आइएएस बनने का भूत सवार था, यह हमारे घर और रिश्तेदारों का असर था कि यह सबसे बड़ी नौकरी है और इसे पास करने के बाद सीधा कलेक्टर बना जा सकता है। जब सोच लिया कि सिविल की तैयारी करनी ही है तो सबसे पहले मैंने हिन्दी साहित्य का ही सिलेबस देखा। उसमें 'चांद का मुंह टेढ़ा है'  {सिर्फ अंधेरे में}-गजानन माधव मुक्तिबोध - लिखा हुआ मिला। 

और लेखक लगभग परिचित थे, सबको हमने पहले की कक्षाओं में पढ़ा था, लेकिन मुक्तिबोध का नाम नया और अटपटा सा लगा। तो एच.एस. में पढ़ते हुए मैंने जो तीन किताबें  खरीदीं उनमें 'शेखरः एक जीवनी' और 'कामयानी' के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है' भी शामिल था। पहली बार नाम और बीड़ी पीता हुआ पिचके गालों वाला एक कवि सामने आया। किताब के पन्ने उलटे तो कविताओं के लय और शब्दों ने आकर्षित किया लेकिन बातें बहुत कम समझ में आईं। 

चूंकि 'अंधेरे' में कविता सिलेबस में थी इसलिए सबसे पहले उसे ही पढ़ना शुरू किया। सांकल अंधेरा और पता नहीं कितने ही शब्द ऐसे आए जिनसे पहले का परिचय नहीं था। लेकिन मैंने उस कविता को बार-बार पढ़ा। बोर हो-हो कर भी उसे पढ़ा। कविता तो समझ में नहीं आई लेकिन यह कवि एक चुनौती की तरह मेरे सामने खड़ा हो गया। यह दुबला-पतला पिचके गालों वाला आदमी, क्या है इसके मन में - कविता कहां से आती है - इसके यहां। मैं पढ़ते हुए हर बार सोच में पड़ जाता।

उस समय कोलकाता में मेरे परिचय का कोई मित्र ऐसा नहीं था जिससे मैं अपनी परेशानी बताता, पिता जी के लिए कविता रामचरितमानस और रश्मिरथी से ज्यादा न थी। मां तो अछर चिन्हना भी भूल चुकी थी। मुझे लग रहा था कि हिन्दी में लिखी हुई कविता अगर मैं नहीं समझ पा रहा हूं तो और चीजें मेरी समझ में कैसे आएंगी, फिर तो सिविल गया काम से और जो सपने और आस मेरे घर वाले मुझसे लगाए बैठे हैं, उनका टूटना मेरे सामने प्रकट हो जाता और फिर से उस कविता को समझने का प्रयास शुरू कर देता था। लेकिन कविता तो समझ में नहीं आई कविता का एक अंश मुझे याद हो आया जो अपेछाकृत आसान था - अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। मैं यह सवाल अपने आप से पूछता कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया - इस मुरियल-से बीड़ी पीते हुए कवि की कविता तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है।

तो मुक्तिबोध की कविताएं मेरे सामने एक आतंक की तरह आईं और यह कवि अपने साधारण (?) व्यक्तित्व से डराता हुआ।  कॉलेज में गया। वहां  मुक्तिबोध बकायदा सिलेबस में शामिल थे। एक प्रोफेसर साहब का कहना था कि मुक्तिबोध को पढ़ाने के लिए लोग अपने सिनियर से उनकी कविताएं पढ़ कर जाते हैं। जैसे केशव को लोग कठिन काव्य का प्रेत कहते थे - कुछ-कुछ उसी तरह का इंप्रेशन मुक्तिबोध को लेकर हमारे अद्यापकों में था। मैं पहले से ही डरा हुआ था- कॉलेज और युनिवर्सिटि में लोगों ने और डराया। 

मैंने मान लिया कि यह कवि अपने समझ के बाहर है। क्योंकि मुक्तिबोध को पढ़ाते हुए अद्यापकों के चेहरों पर भी एक अजीब तरह का तनाव मैं देखता और वे जल्दी-जल्दी अपनी बातें कहते हुए आगे बढ़ते - हमारे मन में सैकड़ों सवाल सुलगते रह जाते और पिरियड समाप्त हो जाती।

मेरी एक दोस्त थी सीमा। मुक्तिबोध उसके प्रिय कवि थे। वह ऐसा ही कहती। मैं संकोचवश नहीं कह पाता था कि वे मेरी समझ में नहीं आते क्योंकि मैं एक अच्छा विद्यार्थी समझा जाता था और आनर्स में मैंने यूनिवर्सिटी टॉप किया था। 

मैंने सोचा एक दिन कि इस लड़की को टटोला जाय कि आखिर यह कुछ समझती भी है या यूं ही टपला मार रही है। मैंने पूछा कि मुक्तिबोध को कैसे समझती हो। उसका जावाब था कि मुक्तिबोध को समझने के लिए तुम्हारे अंदर आम आदमी के प्रति सच्ची सहनुभूति और कुछ करने की हिम्मत चाहिए। बेचारगी ओढ़े हुए और अपना काम निकालने की फिराक में रहने वाले लोगों को मुक्तिबोध कभी समझ में नहीं आएंगे। मुक्तिबोध को यह सोचकर पढ़ोगे कि वे तुम्हारे सिलेबस में हैं तो वे कभी समझ में नहीं आएंगे। तुम्हे मुक्तिबोध को पढ़ने के पहले उनको समझना होगा जिनके लिए वे लिख रहे थे, लिख ही नहीं रहे थे - अंदर तक बेचैन भी थे। फिर उसने कई कविताएं पढ़कर सुनाई और कहा कि इसमें क्या है जो तुम्हारी समझ में नहीं आता।

बाद में मैंने मुक्तिबोध को  उसी तरह पढ़ना शुरू किया और अब मुक्तिबोध उतने कठिन नहीं लगते।  मुक्तिबोध की ताकत उनकी कविताएं नहीं वह शक्शियत है, जो अपाद-मस्तक इमानदार थी और आम आदमी के लिए प्रतिबद्ध भी। एक मध्यवर्गीय आदमी कलाकार होकर, ट्रू कलाकार होकर जिन बिडंबनाओं से गुजरता  है, मुक्तिबोध भी उससे गुजर रहे थे। वे सिर्फ कविता नहीं लिख रहे थे कविता को जी भी रहे थे। यही कारण है कि मुक्तिबोध कभी-कभी बेतरह और शिद्दत से याद आते हैं - और हमारी लेखनी पर फिर-फिर सोचने के लिए मजबूर कर जाते हैं...।

Sunday, September 9, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-19

हर अतवार छुटे हुए काम पूरे करने के संकल्प का दिन होता है। हम बहुत शिद्दत से इस दिन का इंतजार करते हैं, उस दिन दफ्तर नहीं जाना होगा और आराम से कोई किताब लेकर पढ़ेंगे या अधूरी कहानी पूरी करने की कोशिश करेंगे, कोई एक कविता जो पता नहीं कितने दिन से हसरत लगाए बैठी है - एक कोई कहानी जो पता नहीं कितने समय से इंतजार में है - उनसे बोलना बतियाना होगा।  लेकिन सारे संकल्प धरे के धरे रह जाते हैं। कोई एक किताब जिसे बहुत पहले खरीदा था - आलमारी से झांककर पूछती है - आज कौन-सा दिन है?

मैं झेंप जाता हूं और मन ही मन अतवार-अतवार बुदबुदाता हुआ घर के दूसरे कोने में चला जाता हूं। 

लेखक के लिए  जिस तरह के अनुशासन की बात गुरूओं ने कही हैं, उसका नितांत अभाव मेरे अंदर रहा है। मेरा उपन्यास अधूरा पड़ा है, 15-16 कहानियां मेरी कलम की राह देखती थक ही गई हैं, उनने आशा छोड़ दी है लगभग। 

पिछली बार पीचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था, रिन्युवल का समय भी नहीं रहा। दूसरी बार दुबारा रजिस्ट्रेशन हुआ है। इस बार शोध प्रबंध लिख देने का संकल्प है। पता नहीं कितने अतवार इसी तरह से बितते जा रहे हैं लेकिन अब तक कुछ खास नहीं कर पाया हूं। 

आज फिर से संकल्प लिया है कि अब अनुशासनात्मक लेखन में जुटूंगा और अधूरे सब काम पूरे करूंगा.... लेकिन यह अतवार भी बितता जा रहा है..... मैं अतवार को बितते टुकुर-टुकुर देख रहा हूं....।

Friday, September 7, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 18

बुधवार, 05.09.2012


कविता का लोक से क्या रिश्ता है। यह सवाल कई लोंगों ने कई तरह से उठाया है। लोक के पिछड़ेपन का सवाल भी कविता के साथ अक्सर उठाया जाता है और इस वजह से लोक संपृक्ति वाले कवियों को कमतर कर के आंकने की एक एक प्रवृति भी देखने में आती है। 

मुझे कई बार लोगों की यह सब बातें समझ में नहीं आतीं। इमानदारी से कहूं तो कई लोगों की कविताएं मेरे लिए पहेली या बुझौअल की तरह हैं। कहते हैं कि ऐसी कविताएं विश्व कविता की कोटि में आती हैं। मतलब आकाश के माथे पर खिजाब लगाने की चिंता ज्यादा प्रबल होती है ऐसे कवियों की कविताओं में। लोक का कविता से रिश्ता का मतलब मेरी समझ में यही आता है कि ऐसी कविताएं लोक की तरह ही सहज और संप्रषणीय होती हैं। लोक में एक तरह की धूसरता होती है, जिसका अपना सौन्दर्य होता है। एक और बात मेरी समझ में आती है कि लोक  संपृक्ति वाली कविताओं के पास अपनी एक समृद्ध जमीन होती है, एक लंबी साकारात्मक परंपरा और व्यवहार होता है जो मनुष्यता का एक सहज गुण है।  मैं जब भी कविता लिखने बैठता हूं मेरे गांव का सबसे गरीब आदमी याद आता है, जिसके उपवास चूल्हे को मैंने अपनी आंखों से देखा है। अपनी आजी की वो आंखें देखी हैं जो अपने परदेश चले गए बेटे के इंतजार में पसीजती रहती थीं। बाबा की आंख का वह धुंआ देखा है जब सूखे या बाढ़ के समय उभर आती थीं और महीनों टिकी रहती थी।

मेरे लिए लोक का मतलब वह गांव है जहां 65 साल की आजादी के बाद भी अबतक बिजली नहीं पहुंची है और जहां आज भी फगुआ गाया जाता है, सिनरैनी सजती है और चइता की तान उठती है खलिहानों से। और वह गांव सिर्फ मेरा गांव नहीं है हिन्दुस्तान का  एक गांव है जहां रहने वाले लोग इसी देश के वासी हैं, उसकी राजधानी भी दिल्ली ही है। 

मेरे लिए लोक का मतलब आगे बढ़कर यह देश भी है जिसमें सैकड़ों गांव हैं, एक शहर भी है जहां लोगों के मन में गांव की हवा हांफती है। यह वह लोक है जो अपनी जमीन पर खड़े होकर संसार की ओर मुंह उठाए देख रहा है, और  कहता है कि तुम्हें हमारी हालत के लिए शर्मिंदा होना चाहिए। वह लोक जमीन और आसमान के बीच खड़ा एक ऐसी जगह है जहां मनजत्व के पौधे अंकुरित होते हैं।

मेरे लिए कविता से लोक का रिश्ता कविता से मनुष्यता के रिश्ते की तरह है जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत  है। कविता ज्यों-ज्यों वैश्विक होती जाएगी, आदमी से उसका रिश्ता कम होता जाएगा। कविता का आदमी से संबंध क्या और क्यों है, यह बताने की जरूरत नहीं।  लोक संपृक्त कविता का अर्थ जमीन की कविता है जो आसमान को संबोधित है।

मेरी तो यही समझ है। बाकी समझदार लोगों की समझ से  कविता का कितना भला होगा, यह तो समझदार लोग ही जानें। अपन तो बस  जो लिख रहे हैं, वह जाहिर है।  

Thursday, September 6, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 17

 04.09.2012, मंगलवार
संबंधों को बचाने के लिए जितनी ऊर्जा हमारी जाया होती है - उतनी ऊर्जा में हम रचना के कितने पड़ाव पार कर सकते हैं -जो हम नहीं कर पाते। संबंध हम अपने लिए बनाते हैं- उनके बनते हुए के समय में हम खुद को समृद्ध करने की खुशफहमी में होते हैं लेकिन वे संबंध कई बार हमें कंगाल कर के चले जाते हैं। कंगाल और खाली।  हमारे पास उदासी और पश्चाताप के कुछ नहीं बचता। 

काश कि हमारे पास इतनी शक्ति होती कि उस उदासी और पश्चाताप का अपनी रचनात्मक समृद्धि के लिए इस्तेमाल कर पाते। 

लेकिन यह काम कितने कम लोग कर पाते हैं। 

यह हमारे अंदर बैठे एक मासूम शिशु को सबसे पहले मारती है- अचानक हम बहुत बड़े हो जाते हैं - इतने बड़े कि रचना का कैनवास उसमें समा नहीं पाता।

रचना के सामने यह क्या एक बहुत बड़ी चुनौती नहीं है? हम रचना से इतर रहकर उसका कितना नुकसान करते हैं - यह समझने वाला कोई नहीं।

रचनाकार अंततः अकेला होता है। उसके साथ कोई नहीं होता। 

एक समय दुख, उदासी और पश्चाताप भी उसका साथ छोड़ जाते हैं....।

Tuesday, September 4, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 16

किसी एक दोस्त की याद आती है और यह मन अतीत के किसी समय में जाकर ठहर जाता है। कभी-कभी कितनी शिद्दत से हम छूट गए क्षणों को वापिस बुला लेना चाहते हैं। 
जो गलतियां हमने कीं, जिनकी वजह से हम अपने एकांत में जार-जार रोए, जिनकी वजह से हमने पता नहीं अपने कितने करीब लोगों को दुख पहुंचाया। अगर छूट गया समय वापिस मिल जाता तो हम सब सही कर लेते। 
यह जानते हुए कि यह कत्तई संभव नहीं है, हम सोचते हैं। 
मैंने एक लड़की के लिए जो लिखा था पहली बार एक कार्ड में और उसकी आंखों का रंग अजीब तरह से परिवर्तित हो गया था, उसे लिखे को बदल देता या वह लिखने में देर न करता।  मैंने प्यार नहीं लिखा था - 'मैंने लिखा था कि शब्द साथ नहीं देते, होंठ सिल जाते हैं, तुम शायद समझ सकती हो कि कुछ न कह सकने का दुख कितना बड़ा होता है।' लिखकर देने के बाद लगा कि मैंने कोई गलती कर दी है। हम ऐसे जमाने में रह  रहे थे जहां लड़कियों से बाद तक कर लेना हमारे जेहन में एक गलती की तरह उभरती थी।
जो मैंने लिखा था सोचता हूं आज तो गलत नहीं लगता लेकिन उसकी आंखों के रंग बदलने के बाद जो प्रतिक्रियाएं मैंने व्यक्त कीं, मौन रहकर या मुखर होकर - वह सचमुच गलत था। मैंने रोज एक प्रेम कविताएं लिखीं- कक्षा के ब्लैक-बोर्ड पर। और एक दिन खूब गुस्से में अपनी एक लिखी कविता को मिटाने के लिए पूरे ब्लैक बोर्ड को मुक्के से मार कर तोड़ दिया। 

ब्लैक बोर्ड शीशे का था और मेरे हाथ खून से सन गए थे। यह सब देखकर वह लड़की कक्षा से ऐसे भागी थी जैसे उसके बाद मैं उसका गला दबा दूंगा। उसके भागने में एक जो डर था और उसकी आंखों में दुख और गुस्से की एक जो परत थी और जो पता नहीं कितने समय से मेरा पीछा करती है। अगर समय को लौटा पाता मैं तो उस लड़की के भय को पसीने की तरह पोंछ देता उसकी आंखों के दुख को कम कर देता।
तब भी कविताएं मेरे लिए खुद को अभिव्यक्त करने का साधन थीं। जो मैं देखता-सुनता और महसूस करता था वही लिखता था। मैं आज भी  अपनी रचना में थोथी कल्पना का इस्तेमाल बहुत कम कर पाता हूं।  
मैंने एक बार गुलाब के फूल को अपने पैरों से कुचला था। पता नहीं कितने दोस्तों को अपने रूखे व्यवहार के कारण अपना दुश्मन बनाया था। अपने घर से जो दूरी बनी वह आज तक कम नहीं हुई है। और यह सब इस कारण हुआ कि एक लड़की ने मेरे लिखे को महत्व नहीं दिया था - मेरी संवेदना के शब्दों ने उसकी आंखों में चमक नहीं पैदा की थी - वह आंखें अजनबी हो गई थीं।
क्या मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मेरे  जेहन में कविता के बीज अंकुरित हुए तो वह एक रिजेक्शन के कारण। मैं ठीक-ठीक इसका उत्तर नहीं पाता। उसके बाद के समय में मैं उर्दू शायरी और गजलों में भटकता रहा।  तीन साल मैंने किसी से ठीक से बात नहीं की। सिर्फ शेरो शायरी  और गजलें पढ़ता रहा। इसी दौरान मैने कई गजलें भी लिखीं। गजलों की जो कुछ तमीज मेरे अंदर है, वो उसी दौरान की दी हुई हैं...।
अगर छूट गए समय को लौटा पाता तो  छूट गए समय में मुझसे आहत लोगों से मैं माफी मांगता और खुद को क्षमा कर पाता। घर में घर के लोगों की तरह रह पाता। .....।
लेकिन कभी-कभी पिता कि वह बात याद आती है जब वे कहते थे कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है उसके पीछे ईश्वर की कोई मंशा छिपी होती है, कि वह अच्छे के लिए ही घटित होता है।  अगर मेरे जीवन में यह सब न घटित हुआ होता, तो हो सकता है कि मैं जेएनयू में चला जाता और भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई बड़ा अदिकारी बन जाता, जो मेरे पिता का सपना था - कि मेरा भी सपना था बहुत दिनों तक वह।  मैं जानता हूं कि वह सब मैं बन जाता - लेकिन कविता-कहानी न लिख पाता । 

आदमी न बन पाता, जिसके लिए मेरे बाबा ने मुझे एक दिन जबरदस्ती गांव से शहर भेज दिया था....।

Monday, September 3, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-15

प्रफुल्ल भाई ने पन्नालाल की याद दिला दी। पन्नालाल को मैं भूल गया था कुछ दिनों से। उनकी किताब मौसम खराब है - कहीं दब गई थी किताबों के ढेर में। जैसे किताबों के ढेर में साधारण से कवर पेज और सादारण मुद्रण के साथ छपी उनकी किताब दब गई थी - उसी तरह पन्नालाल भी स्मृतियों के जंगल में कहीं बहुत नीचे दब गए थे। पन्नालाल कुछ खास परिचय नहीं था- बस एक दो संक्षिप्त-सी मुलाकातें।



पहली बार उनको जब देखा तब वे मेरे लिए निर्णायक मंडली के सदस्यों से लड़ रहे थे। 

हमने निलांबर के बैनर तले एक नाटक खेला था। उदय प्रकाश की कहानी और अंत में प्रार्थना पर मित्र ऋतेस और हम सबने मिलकर एक आधे घंटे का स्क्रिप्ट तैयार किया था। 

यह नाटक लगभग दस साल पहले हावड़ा के शरतम सदन में हिन्दी मेला द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में खेला गया था। यह पहली बार ही था कि मैं मंच पर था और वह भी मुख्य भूमिका में। मुझे स्वाकार करना चाहिए कि तब मैं मंच पर जाने का आभ्यस्त नहीं था। लेकिन अबिनय से शुरू से रहे प्रेम ने मुझे बचाया। और मैंने बहुत अच्छा अबनय किया। हलांकि नाटक को बेस्ट प्रोडक्शन का अवार्ड मिला, लेकिन मुझे सबसे अच्छे अबिनेता का पुरस्कार नहीं मिला, जब कि हम सभी इसकी आशा कर रहे थे। पन्नालाल ने आकर मुझे बधाई दी और लागातार निर्णायकों से इस बात पर झगड़ा करते रहे कि इस लड़के को सबसे अच्छे अभिनेता का पुरस्कार आपलोगों ने क्यों नहीं दिया। 

मैं उन्हें जानता तक न था। बाद में किसी ने मुझे बताया कि इनका नाम पन्ना लाल है। देखने में इतने साधारण कि कोई भी उन्हें मजदूर समझ सकता था। उस समय मैंने भी यही समझा कि कोई होगा। अंत में वे मेरे पास आए और कहा - मंच पर इतना स्वभाविक अबिनय मैंने आजतक नहीं देखा। मैंने बहुत नाटक देखा है लेकिन इतना आकर्षित किसी के अभिनय नहीं देखा। मैं क्या कहता, बस सुन रहा था और सुनकर खुश हो रहा था। तब नहीं सोचा लेकिन आज इतने दिन बाद सोचता हूं कि ऐसे कितने लोग हैं इस दुनिया में जो दूसरों के लिए इस तरह मुखर होते हैं। वहां और भी लोग थे। लगभग कोलकाता के सभी बुद्धिजीवी, कलाकार लेकिन पन्ना लाल ही क्यों बोल रहे थे। उनसे मेरा क्या संबंध था?

पन्ना लाल कोलकाता के किसी जूट मिल में काम करते होंगे। या किसी प्राइमरी स्कूल के शिक्षक होंगे। मैंने कभी नहीं पूछा कि वे क्या करते हैं। उनका घर कोलकाता में कहां है, उनके घर में कितने लोग हैं, और जो लोग हैं वे ठीक तरह रह-सह रहे हैं या नहीं।

उनको गोष्ठियों में गीत गाते सुना था। एक दिन वे मेरे पास आए और अपनी किताब देकर कहा - इसे पढ़ना। इसमें मेरे गीत और कविताएं संकलित हैं। मैंने देखा कि उस किताब में भोजपुरी के भी गीत संकलित थे। जब वे बिमार पड़े तो मुझे नहीं पता था। मुझे यह भी पता नहीं था कि बिमारी में उनके पास दवाइयों के पैसे हैं या नहीं। और एक दिन अचानक महेश दा का एसएमएस आया कि पन्ना लाल नहीं रहे।

अचानक मैं अंदर तक बेचैन हो गया। लेकिन मुझे दफ्तर जाने की देर हो रही थी। मैं निकल गया और पूरा दिन पन्नालाल का निश्छल चेहरा याद आता रहा। वे आवाजें याद आती रहीं, जो कभी जनता के गीत गाती थीं, वे आंखें याद आती रहीं जिनमें बदलाव के सपने थे।

आज पन्नालाल को याद करते हुए मैं सोचता हूं कि मैं भी पन्नालाल हूं।  इस देश में पता नहीं कितने पन्नालाल हैं, जिनकी आंखें बदलाव के सपने के साथ असमय बंद हो गई हैं।



क्या पन्नालाल जैसे लोगों को यह देश या इस देश का इतिहास कभी याद रखेगा? 

इस प्रश्न पर आकर मैं मौन हो जाता हूं, और कुछ दिनों के लिए मन उदासी के एक भंवर में चला जाता है..-- निष्क्रिय और लापरवाह.. जैसे उसके होने का कोई अर्थ नहीं...।



Sunday, September 2, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी -14

एक खाली और उदास दिन। कुछ-कुछ वैसा जैसा निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलता है। लगता है जैसे हम एक बहुत बड़े शून्य का हिस्सा हो गए हैं - बल्कि एक शून्य में बदल जाते हैं। सारी संवेदनाएं कहीं ठहर सी जाती हैं शायद दिमाग के किसी गुप्त गुफा में - शायद आराम करने के मूड में। आपको देखकर तब कोई भी किसी दूसरे ग्रह का जीव समझने की भूल कर सकता है।

कई बार सोचता हूं कि यह खालीपन यह उदासी कहां से आती है, जबकि दूर-दूर तक कोई तात्कालिक कारण नजर नहीं आता। पर यह उदासी आती है और टिक रहती है। अब वह कितने दिन रहेगी, यह उसकी मरजी के उपर है। आप चाहकर उसे हटा नहीं सकते - मन को निचोड़-समेट कर किसी दूसरी जगह नहीं ले जा सकते।

क्या सिर्फ ऐसा किसी रचनाकार के साथ ही होता है, किसी कलाकार के साथ - या हर कोई इस अनुभव से गुजरता है। मुझे याद आता है कि इस तरह का अंतराल-यह उदासी और खालीपन - पता नहीं किन समयों से मेरे पास आती रही है। तब रचना - कला और कई चीजों की मेरी समझ एकदम न के बराबर थी। कि नहीं ही थी। तब मैं जाकर किसी पेजड के नीचे बैठ जाता था और घंटो उसकी पत्तियां गिना करता था। बरसात का दिन हुआ तो पानी भरे गड़हे में ढेला फेंकना आम बात थी। खेत की कभी न खत्म होने वाली पगडंडियां थी जिनसे होते हुए मैं गांव के सिवान तक पहुंच जाता था। कभी-कभी मन करता कि वहां जाऊं जहां बादल जमीन को छू रहे होते हैं। जबकि और सारे बच्चे खेल रहे होते थे और मैं उदास भटकता रहता था गांव के बियाबानों में।

तब नहीं जानता था कि यह क्यों हो रहा है। जानता तो अब भी नहीं हूं। क्या पकृति हमें इस तरह उदास और अकेला कर के हमें निरंतर गढ़ती रहती है। जैसे कोई मूर्तिकार कोई मुर्ति गढ़ता है, या कुम्हार वर्तन गढ़ता है। 

सोच के असंख्य छोरों तक जाता है यह मन और खाली हाथ वापिस लौट आता है।जब हार-थक जाता है तो कोई एक शब्द उभरता है जेहन में उसका हाथ पकड़ कर हम एक छोटी या बहुत लंबी यात्रा करते हैं - कविता कुछ-कुछ ऐसे ही बनती है। क्या ऐसे ही जन्म लेती हैं कलाएं। 

हम अपनी पीड़ा में  एक यात्रा  पर निकल पड़ते हैं और हमारी यात्राओं के चिन्हों को कविता -कहानी और कला समझा जाता है...।