पहली-दूसरी -तीसरी कविताओं से होते हुए असंख्य कविताओं तक का सफर जारी हुआ। लेकिन यह बहुत बाद की बात है। इसके पेश्तर रामनरेश त्रिपाठी की प्रार्थना, मैथेलीशऱण गुप्त की गौरव भरी कविताएं - इससे ज्यादा क्या था मेरे पास। एक सत्यनारायण लाल थे जिनका नाम बार-बार पढ़ने में आता था।
हमने नहीं जाना कभी तब कि कार्टून की किताबें होती हैं। चंदा मामा जैसी किताबें होती हैं, जिन्हें बच्चे पढ़ते हैं। हमारे पास जो किताबें थीं वे कक्षा के लिए जरूरी थीं। आलावा इसके हनुमान चालिसा, सत्यनारायण व्रत कथा जैसी किताबें। एक किताब और थी जिसका जिक्र मैं बार-बार करता हूं - वह थी रामचरित मानस।
समय-समय पर गीत गवनई और उसमें गाए जाने वाले रामायण और महाभारत के प्रसंग थे। विदेसिया नाच था और उसमें नाचने वाले लौंडों के द्वारा विरह के गाए हुए गीत थे, जोकर था जो अपनी अदाओं से हंसाता था। सत्ती ब्हुला का नाटक था, रानी सारंगा और सदावृक्ष जैसी किताबें थीं जिसे लय में हम बहनों के साथ गाया करते थे। गांव में हर समय गूंजने वाले मेहररूई गीत थे - गीत में पीड़ा थी, हंसी थी और वह सबकुछ था और तब हमारा मन इन्ही सबको जीवन समझता था।
कविता कहां थी। हरिजन बस्तियों में गाये जाने वाली सिनरैनी थी जिसमें रविदास के पद गाए जाते थे। तब रविदास का पता नहीं था कि कौन थे। कबीर की उक्तियां थीं जिन्हें हम साधु-संत समझते थे। गोरखपंथी साधुओं द्वारा सारंगी पर गाए हुए गीत थे जिन्हें सुनते हुए मैं पूरे दिन गांव-गांव भटकता रहता था।
आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि इन्ही सब चीजों के बीच चुपके से कविता मेरे अंदर कहीं प्रवेश कर रही थी। और मैं उससे अनजान आपने में मगन एक ऐसी यात्रा कर रहा था जिसकी पगडंडियां यहां तक आती थीं जहां मैं खड़ा हूं।
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