हर अतवार छुटे हुए काम पूरे करने के संकल्प का दिन होता है। हम बहुत शिद्दत से इस दिन का इंतजार करते हैं, उस दिन दफ्तर नहीं जाना होगा और आराम से कोई किताब लेकर पढ़ेंगे या अधूरी कहानी पूरी करने की कोशिश करेंगे, कोई एक कविता जो पता नहीं कितने दिन से हसरत लगाए बैठी है - एक कोई कहानी जो पता नहीं कितने समय से इंतजार में है - उनसे बोलना बतियाना होगा। लेकिन सारे संकल्प धरे के धरे रह जाते हैं। कोई एक किताब जिसे बहुत पहले खरीदा था - आलमारी से झांककर पूछती है - आज कौन-सा दिन है?
मैं झेंप जाता हूं और मन ही मन अतवार-अतवार बुदबुदाता हुआ घर के दूसरे कोने में चला जाता हूं।
लेखक के लिए जिस तरह के अनुशासन की बात गुरूओं ने कही हैं, उसका नितांत अभाव मेरे अंदर रहा है। मेरा उपन्यास अधूरा पड़ा है, 15-16 कहानियां मेरी कलम की राह देखती थक ही गई हैं, उनने आशा छोड़ दी है लगभग।
पिछली बार पीचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था, रिन्युवल का समय भी नहीं रहा। दूसरी बार दुबारा रजिस्ट्रेशन हुआ है। इस बार शोध प्रबंध लिख देने का संकल्प है। पता नहीं कितने अतवार इसी तरह से बितते जा रहे हैं लेकिन अब तक कुछ खास नहीं कर पाया हूं।
आज फिर से संकल्प लिया है कि अब अनुशासनात्मक लेखन में जुटूंगा और अधूरे सब काम पूरे करूंगा.... लेकिन यह अतवार भी बितता जा रहा है..... मैं अतवार को बितते टुकुर-टुकुर देख रहा हूं....।
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