Thursday, August 30, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 12


और लोगों के जीवन पर कविता  का और कविता पर जीवन का प्रभाव कैसा पड़ता है, यह यहां कहना उद्देश्य नहीं है। लेकिन अपनी कहूं तो मेरे लिए कविता और जीवन दोनों साथ-साथ चलते वाले जरूरी उपादान हैं। कि जीवन पहले चलता है - कविता उसके पीछे लग जाती है। इसलिए मेरी कविताओं में हर रोज के दुख और खुशी का शामिल हो जाना मुझे कभी भी अस्वाभाविक नहीं लगता।

जैसे वह लड़का  जो मरे पास के चेयर पर बैठता है, उसे आज पहली बार वेतन मिला है, वह  हाथ में रूपये लेकर ऐसे उत्साहित हो रहा है, जैसे एक बच्चे के हाथ में  कोई कीमती खिलौना होता है। मैं लाख चाहूं तब भी उस बच्चे हो गए लड़के की हरक्कतों को इग्नोर नहीं कर सकता। उसके सहारे मैं एक दूसरे समय में पहुंचता हूं जब पहली बार मेरे हाथ में  चार सौ रूपए का एक चेक आया था। उस समय मैं कोलकाता के जयपुरिया कॉलेज में अंशकालिक प्रवक्ता था। तब हमें महीने के चार सौ रूपए मिलते थे। बैंक में अकाऊंट नहीं था। मैं उस चेक को लेकर बार-बार देखता था और उसपर गोल-गोल अक्षरों में लिखे चार सौ रूपए। मैं चाहता था कि वे लिखे हुए चार सौ जादू से चार हरे-हरे नोटों में तब्दील हो जाएंगे। उस चेक को पैसे में बदलने के लिए पहली बार बैंक में खाता खुला था, और जिस दिन वह रूपए मेरे हात में आए उस दिन मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। वह अमीरी का अहसास मुझे किसी कविता से नहीं मिला, और दूसरे अहसास कविताओं को लेकर हैं, कहानियों को लेकर हैं लेकिन पहली कमाई के हाथ में आने का अहसास इतना अद्वितीय था कि उसकी तुलना और किसी अहसास से करना बेमानी है।

मेरे पास बैठने वाला लड़का अपने नोटों को स्कैन करता है, उसे पेन ड्राइव में कॉपी करता है। वह उसे शायद जीवन भर रखना चाहता है अपने पास सम्हाल कर। मैं सोचता हूं कि उस समय मेरे पास स्कैनर होता तो शायद मैं भी ऐसा ही कुछ करता। लेकिन उन चार सौ रूपए के साथ मैं मनीषा जी से मिलने गया। हमने फूट-पाथ पर झाल मुढ़ी खाए, अंगूर खरीद कर खाया, और ढेर सारे मंसूबे बनाए। चार सौ रूपए कितने दिन तक रहते। खत्म भी हुए। लेकिन उनके होने का अहसास हमारे दिलों में हमेशा के लिए कही ठहर गया। आज इस लड़के को देखा तो एक कविता जैसा कुछ जिंदा हो गया।

कविता शब्द से नहीं बनती। जिन शब्दों को कविता में एक कवि लिखता है वे शब्द सबके पास होते हैं, लेकिन कविता सिर्फ शब्द और भाषा नहीं होती। कविता  उस लड़के के चेहरे की हंसी होती है, जो पहले वेतन को हाथ में पाकर उभरती है, मां के माथे का सकून होती है जब वह अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरती है, लहलहाती फसल की एक किसान के चेहरे पर उभरी प्रतिबिंब होती है।

इसलिए मैं कहता हूं कि कविता को कभी भी शब्दों की मार्फत न तो समझा जा सकता है और ना ही लिखा जा सकता है। यही कारण है कि सही मायने में कविता लिखने वाले और समझने वाले संख्या में बहुत कम हैं। 

समय जितना निर्मम और अत्याचारी होता जाएगा, कविता लिखने और कविता समझने वालों की संख्या में कमी आती जाएगी। लेकिन कविता की जरूरत तब और अधिक होगी। 

..क्योंकि हर समय में कविता लिखना या कविता पढ़ना मनुष्य होने की पहली शर्त है..

No comments: