कभी-कभी लगता है कि पूरा दमाग शब्दों से खाली हो चुका है, एक भी शब्द नहीं बचा इस पूरे संसार भर में। हम मौन हो गए हैं कि फिर से उस आदिम युग में चले गए हैं जहां हम संकेतों में बात करते थे। इतना बोला और कहा गया है कि अब बोलने कहने की हिम्मत नहीं होती कई बार। हम एक ही समय में एक सभ्य और एक आदिम युग में कैसे रह और जी सकते हैं, यह एक कलाकार से अधिक कौन समझ सकता है...।
और कलाकार क्या कोई ईतनी आसानी से बन सकता है। कविताएं लिखने वाले क्या हर शक्स को कवि कहा जा सकता है, गाने वाले को गायक या लिखने वाले को लेखक। मेरे लिए कवि बनने और कलाकार बनने में एक पूरी उम्र खर्च हो जाती है, फिर कोई एक बिरला कवि-कलाकार बन कर उभरता है। खत्म हो जाती हैं नस्लें, नाम गुम जाते हैं, केन्द में चमकने वाले नामवर लोग समय की अंधेरी खाइयों में अलोपित हो जाते हैं, टिके रह जाते हैं कुछ लोग जो सचमुच के लोग होते हैं और उनकी कला और कविता हर समय की जरूरत बन जाती है। मैं एक गुमनाम लेखक-कवि {?}ये सारी बातें सोचूं भी तो कैसे। हूं पर नहीं नहीं..। मैं सिर्फ शब्दों से प्यार करता हूं... और शब्दों से प्यार करते हुए कोई कितना दूर जाएगा...।
मेरा एक कहने को घर है और इतनी सारी जिम्मेवारियां और एक बड़ी जिम्मेवारी इस मिट्टी के लिए भी है, जिसकी धूल मेरे शरीर में आज भी घंसी हुई है।
मैं कवि-कलाकार बनने के लिए कभी लिखूं भी तो कैसे। यह चाहत मेरे भीतर आए भी तो कैसे...?
मैं तो अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने के लिए लिखता हूं। मेरे बड़े भाई तो इलाज के अभाव में मर गए और उनका तो छोटा मोटा इलाज भी हुआ लेकिन उनके बारे में जब सोचता हूं जिनके घर कई-कई शाम चूल्हे नहीं जलते, इलाज की बात तो दूर, तो अपने कवि होने पर शर्म आती है।
एक कविता तो ऐसा लिखूं जिसमें शब्द न हों, कला न हो, लय और तमाम कविता के लिए जरूरी चीजें न हों, लेकिन वह कविता मेरे गांव के सबसे गरीब परिवार के घर चूल्हे में आग की तरह जले, तसली में चावल की तरह डभके... एक बच्चे के चेहरे पर हंसी की तरह खिल-खिल आए। और एक भूखी आंत में पहुंच कर रक्त के रूप में तब्दील हो जाए।
उसके पहले अगर मुझे कोई कवि मानता हैं तो मानता रहे, मुझे अपने लिखने पर तब भी अफसोस ही रहेगा....।
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