Thursday, August 23, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 5


24.08.2012, शुक्रवार

कल किसन कालजयी से मिला। वहीं हितेन्द्र पटेल और आशुतोष जी भी थे। किसन कालजयी ने मेरी कविता की किताब प्रकाशित की है। हम पहली बार मिल रहे हैं- किसन जी ने कहा। अच्छा, आप मिले नहीं कभी और आपने विमलेश जी कि किताब छाप दी। यानि हिन्दी साहित्य में यह भी होता है, यह बात हमें आश्वस्त करती है - आशुतोष जी की आंखों में विस्मय था। 

उन्हें कॉफी हाउस जाना था। लेकिन मैं नहीं गया। संकोचवश । अतुल जी से मिलना भी था और जल्दी घर लौटना था। कॉलेज स्ट्रीट से लौटने में मुझे डेढ़ घंटे लगने थे।

मैं महत्मा गांधी रोड के फूटपाथ से लौट रहा था।  सामने एक सीडी बेचने वाला दिखा। मैंने कुछ सोचते हुए उससे पूछा - रवीन्द्रनाथ के गीत हैं हिन्दी में। वह समझा नहीं - उसने फिर पूछा - किसका? मैंने फिर वही दुहराया - रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत।  क्या कहा आपने रवीना टंडन के गीत? - वह बोला। मैं बहुत उदास हो गया और बिना कुछ जवाब दिए फूट-पाथ पर आगे बढ़ गया।

मैं कोलकाता में था। और सोच रहा था कि जिस तरह रवीन्द्र को यहां के लोग पूजते हैं, उससे तो उस आदमी को रवीन्द्रनाथ का नाम मालूम होना चाहिए था। लेकिन उसे शायद नहीं मालूम था।  इस देश की बिडंबना क्या रही। बांग्ला में फिर भी रवीन्द्र को तो लगभग सबलोग जानते हैं, लेकिन क्या हिन्दी भाषा में निराला और प्रसाद को लोग उसी तरह जानते हैं। क्या कभी यह हो पाएगा इस देश में कि हम साहित्य को  भी जीवन की जरूरी चीजों का हिस्सा बनाएंगे।

हिन्दी भाषा के संदर्भ में कहूं तो मुझे बार-बार लगता है कि हिन्दी साहित्य का जिस तरह विकास हुआ उसी अनुपात में हिन्दी पट्टी के लोगों  में साक्षरता और उससे भी अधिक साहित्यिक साक्षरता का विकास नहीं हुआ। इसके बहुत सारे कारण हो सकता है, गुरूओं ने गिनाए हों, मुझे इसकी जानकारी नहीं है। 

लेकिन यह जरूरी था कि साहित्य के विकास के साथ आम आदमी की शिक्षा और उसके मानसिक सोच में विकासात्मक परिवर्तन होता। लेकिन यह न हो सका। और आज भी यह हो नहीं सका है। साहित्यकार आज भी हिन्दी पट्टी के समाज में एक अजूबा चीज है। कवि जी है। हिन्दी पट्टी में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा जाता है कि कविजी आ रहे हैं।

नहीं तो क्या कारण है कि बचपन से ही मेरे मन में ये बात बैठी हुई थी कि और कुछ भी बनना है, लेकिन कवि नहीं बनना है। अगर ऐसा हुआ तो मेरा नाम भूलकर लोग मुझे भी कविजी कहना शुरू कर देंगें। और यह कविजी कहने के बाद दांत निपोर कर ऐसे हंसेंगे जैसे कह रहे हों कि साले तुम निकम्मे हो, इसलिए कवि बने फिरते हो। 

यही कुछ कारण रहे होंगे जब होश आया तो मैंने उपन्यास अधिक पढ़े। और पहली बार जब लिखना शुरू किया तो उपन्यास ही लिखना शुरू किया। यह अलग बात है कि वह उपन्यास गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा और सरला रानू के उपन्यासों के प्रभाव का नतीजा था। जिस डायरी में वह उपन्यास लिखा जा रहा था, और जिसके  आठ अध्याय पूरे हो चुके थे, वह कहीं खो गई है। 

कविता बहुत अच्छी हो सकती है यह मुझे सीमा विजय की अवृति ने बहुत जमाने बाद कॉलेज के दिनों में सिखाया। उसने अवतार सिंह पाश की एक कविता की अवृति की थी और मैं अंदर तक झनझना गया था। वह मेरे कॉलेज का पहला दिन था। एक और कविता की आवृति वह करती थी - कभी मत करो माफ। यह कविता सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की थी। 

इन दो कविताओं की अवृति ने फिर से मुझे झंकझोर कर कविता की दुनिया में वापसी की।  बाद में तो इससे ऐसे जुड़ा कि अब चाहकर भी निकलना संभव नहीं है। मेरे अंदर जब तक एक आदमी जिंदा है जो रोते हुए अपने गांव से इस महानगर में आया था, तब तक मुझे विश्वास है कि मेरे अंदर की कविता नहीं मरेगी। इसकी परवाह मुझे नहीं है कि लोग मुझे कवि समझेंगे या मेरे लिखे को कविता समझा जाएगा कभी। लेकिन एक विवशता जो मेरे साथ हो ली है। उससे दूर होना अब लगभग नामुंकिन लगता है।

एक मित्र की बात याद आती है - वह जमाना गया कि लोग कवियों कलाकारों को अमर बनाते थे, अब अमरता वाला मुहावरा खो गया है, इसलिए जो कवि खुद को अमर करने के लिए लिखता है, वह चुतिया है।

आज उसकी वह बात याद आ रही है - बेतरह । और याद आ रहे हैं रवीन्द्र, निराला और साथ में उस दुकानदार की बात - रवीना टंडन...।

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