Wednesday, August 7, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी -38

कभी-कभी मन बेहद उदास हो जाता है। बारिश की फुहारें भी उदास कर जाती हैं। धूप का चटक रंग भी उदास कर जाता है। बारिश  में चलने वाली कोई एक हवा दूर-दराज के एक गांव में लेकर जाती है। मिट्टी और कींचड़ से सनी गलियां  और  उसमें खेलते बच्चे।  मैं उन्हीं कींचड़ भरी गलियों से निकलकर यहां आया हूं - यहां इतनी दूर इस शहर में जिसका नाम कोलकाता है। 
उदास होकर मन उन खेतों में भटकता है जो हल से जोते गए हैं और जिनमें बाबा खूब तेज चाल में चलते हुए बीज की छिटाई कर रहे हैं - मैं एक मेड़ पर खड़ा देखता हूं। 
तब के मन में अपना एक छोटा खेत होता है जिसमें मैं गेहूं के बीज डालता  मैं एक किसान हूं - जिसे अपने उस छोटे खेत में बीज को पौधे में तब्दील होते हुए देखना है - उसकी रखवाली करनी है।

सपने में एक मचान है जिसपर मैं अकेले बैठा खेत की रखवाली कर रहा हूं - एक कोई सुंदर लड़की मेरे लिए कपड़े में बांधकर कुछ रोटियां लेकर आई है - अपने गमछे से  अपना चेहरा पोंछता प्याज के साथ रोटियों के टुकड़े धीरे-धीरे खा रहा हूं।

मेरे सपने में कोई शहर नहीं है - शहर की बड़ी नौकरी नहीं है। कविता नहीं है - कहानी भी नहीं।   सपने में मेरा गांव है  और गांव के लोग हैं।

समय बदल गया है। गांव दूर  छूट गया है। लेकिन यह अजीब ही है कि सपने में जब भी खुद को देखता हूं तो गांव में ही देखता हूं। पूरी दुनिया में भटकने के बाद अंततः देखता हूं कि गांव के दुआर पर खड़े नाम के पेड़ के नीचे हूं। सुस्ता रहा हूं नीम के झरे हुए फूलों पर बैठकर - दुलारचन काका की सिनरैनी सुन रहा हूं, बुचुल भांट का किलांट सुन रहा हूं -जोसेफ मियां का पिस्टीन सुन रहा हूं।

सपने में बाबा हमेशा जिंदा रहते हैं - जिंदा और साबुत। दोनों बैल जिदा होते हैं - नाद पर भूसे खाती ललकी गाय भी साबुत और जिंदा मिलती है। यहां रोजमर्रा के जीवन में शहर का शोर है - धुआं है।

कितना अच्छा है कि उदासी खींचकर बहुत दूर एक गांव में ले जाती है - जो छूट गया मेरा अपना ही गांव है - और हर रात सपने में  कुद को गांव के चौपाल पर खड़ा पाता हूं।

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