Monday, November 12, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 34

समय बड़ा निर्मम होता है। कि नहीं?

समय की बहुत नदियां पार बहुत सारी ऐसा चीजें  बेमानी हो जाती हैं, जो कभी इतनी मानीखेज होती हैं कि उनके लिए हम कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं, कितने-कितने जतन करते हैं उन्हें-पाने बचाने के लिए।

पर यह समय अपनी रफ्तार में पता नहीं कितने तिलिस्मों को भांग-चूर कर देता है। वह नहीं समझता कि वही तिलिस्म हमारे जीते रहने के अप्रत्यक्ष प्रेरणा होते हैं।

आज दिवाली है। लेकिन मेरे मन में जो असंख्य दिवालियां हैं, उनसे बड़ी यह दिवाली नहीं है। हम पटाखें सुखाने का समय पीछे छोड़ आए हैं। दिवाली के पहले दोस्तों के साथ बैठकर दिवाली मनाने की योजनाएं बहुत पीछे छोड़ आए हैं। 
छूट गए समय में हमारे लिए दिवाली मतलब घी और तेल के दिए होते थे, मिरचइया बम, फूलझड़ी, चकरी, लाइट, पटकउआ, चिटपुटिया, चकलेट बम ये हमारे लिए दिवाली के मायने होते थे।
पूजा जैसी कोई चीज भी होती थी। जिसे घर में बाबा करते थे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उस दिन हम निठाइयों की बात करते हों या खाते हों?

दिवाली के दिन पटाखे फोड़ लेने के बाद हम गेहूं की रोटी और आलू की तरकारी खाते थे। हमारे गांव में दिवाली कहीं से भी खाने-पीने का त्योहार नहीं होता था। छठ पूजा में पुआ पकवान बनते थे जो दिवाली के ठीक छठे दिन होती है। लेकिन दिवाली में पुए पकवान की याद नहीं आती है मुझे।

मिट्टी की दियरी होती थी। कुम्हार का आना और मिट्टी की तरह-तरह की अकृतियां अब भी याद हैं - जो सपने में आती हैं, जो झपसी कुम्हार लेकर आते थे।

दिवाली हमारे लिए मिट्टी का त्योहार था - घर लिपने से लेकर मिट्टी के वर्तन तक का त्योहार। लेकिन उस त्योहार में धीरे -धीरे बारूद भी शामिल हो रहा था और हम बारूद में शामिल हो रहे थे।

अब मिट्टी बहुत पीछे छूट गई है - सिरफ बारूद रह गया है।

दिवाली जब भी आती है - मुझे छूट गए समय में खींचकर ले जाती है। मिट्टी की दियरी और मामूली पटाखों की तरफ....। 

उन हसरतों की ओर जो अब तक पूरी नहीं हुई.....।

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