Sunday, August 19, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-1


 20.08.2012, सोमवार, लिलुया

पंन्द्रह साल पहले की डायरी खो गई है। क्या होगा उसमें की जिज्ञासा लिए पूरे घर में चहलकदमी करता हूं। कोने-कतरे में ढूंढ़ता हूं अपने वे शब्द जो तब लिखे गए जब शब्दों की महिमा तक से मन अनजान था। कुछ भी नहीं मिलता। कागज के टुकड़ों पर लिखी कुछ कविताएं मिलती हैं, जिन्हें आज ठीक तरह कविता भी नहीं कह सकता। निराशा की एक झीनी चादर घर के फर्श पर ही बिछ जाती है। मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं ताकि नई ऊर्जा से अपने छूट गए शब्दों की तलाश कर सकूं।

वे ढेरों कविताएं याद आती हैं जिन्हें लिखते हुए ऐसा नहीं सोचा कि ये कविताएं हैं कि कभी लोग इन्हें पढ़ेंगे। घर की संवादहीनता। दोस्त-साथी के  न होने की सूरत में मैं अपनी बात वहीं कह सकता था। वहीं कहा मैंने। बिना यह सोचे कि कहने के बाद न सांस लेने वाले कागज कुछ नहीं बोलेंगे, सह लेंगे मेरा सबकुछ कहा। अच्छा- बूरा, हंसी-खुशी, उदासी-रूलाई सब सह लेंगे एकदम चुप।

वे कागज के टुकड़े जिन्होंने इतना साथ दिया, उन्हें भूलूं भी तो कैसे। वे छूट गए गांव की पगडंडियों की तरह याद आते हैं। उन रस्सियों के झूले की तरह याद आते हैं जो नीम के पेड़ पर लटका छोड़ आए थे हम यहां इतनी दूर। कोलकाता..। यहां आकर एक सरकारी क्वार्टर में बंद हो गई थीं हमारी सांसें। कहीं कुछ भी नहीं। अखबार नहीं। टी.वी. नहीं। सिर्फ हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें जो पढ़-पढ़कर ऊब गए थे।

याद आती है वह नदी जिसकी देह पर लिखते थे उस समय की सबसे खूबसूरत लड़की का नाम। उस पेड़ की याद आती है जिसमें खुदे थे ककहरा... और कई ऐसी रेखाएं खुदी थी जिनके अर्थ सिर्फ हम ही जानते थे।

ऐसी कविताएं जो हमारी आत्मा पर लिखे थे समय ने। हमारी देह पर स्कूल के मास्टरों ने। हमारे मन पर घर के बुजुर्गों ने। उन सबको लेकर आए थे यहां इस महानगर में शब्दों को खोजने। पिता की नजरों में उन शब्दों को खोजने जिनसे आदमी बनता है कोई एक। पर अपनी नजरों में हम उन शब्दों को खोज रहे थे जिनसे आदमी को सचमुच के आदमी की शक्ल में ढलने में मदद मिलती है। 

हम कोई विशिष्ट नहीं थे। हमें भी रोना आता था। कभी-कभी हंसते थे हम भी जोर-जोर। कोई एक पुराना लोक गीत जोर-जोर से गाकर सोचते थे कि हमारे सामने हजारों लोग खड़े हैं और हमारे गाने पर हो रहे हैं मोहित।

आज पता नहीं क्यों वह छुटा हुआ समय याद आ रहा है।  आइए रहते हैं साथ कुछ दिन। देखते परखते हैं। अपने गुमनामी पर हंसते हैं कुछ लम्हा...। फिक्र को उड़ाते हैं गुब्बारे की तरह। आइए कि फिर से जिंदा होते हैं कुछ लम्हा अपने होने के साथ....।

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