Thursday, August 23, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-4

20.08.2012 - बृहस्पतिवार

अजब दिन थे वे। अजब देश। 

खेत-बधार और गली-गांव से अधिक की पहुंच नहीं थी हमारी। कभी-कभी छुपकर दोस्तों के साथ नदी चले जाते थे। वह भी क्यों, इसलिए कि जोशोप को बहुत सारे गीत याद थे। वह घास गढ़ता था और अपने दोस्तों के साथ भैंस चराता था। हीरालाल भी बहुत अच्छे गीत गाता था। उनके साथ हम बच्चों की टोलियां गाते- बजाते  नदी की ओर भैंस धोने के लिए जाते। मैं नदी के किनारे खड़ा रहता। सारे बच्चे अपने अपने कपड़े उतार कर नदी में उतर जाते। एक दिन मैं नदी में उतरा और मेरे सारे कपड़े गीले हो गए। फिर भिगे हुए कपड़े पहने ही मैं कई घंटे बाहर ही घूमता रहा ताकि कपड़े सूख जाएं तो घर जाऊं। गीले कपड़े के कारण नदी जाने की बात घर वालों को पता चल जाती और मेरा आपने दोस्तों के साथ की चल रही करामातों पर पाबंदी लग जाती। कपड़े सूख गए लेकिन सिर पर पानी ने अपने निशान छोड़ रक्खे थे। मां को पता चला तो उसने बहुत डांट लगाई। लेकिन नदी जाना नहीं रूका। 

एक बार मैं नदी में डूबने लगा। अंतिम बार लगा कि अब मैं मर जाऊंगा, अब फिर मेरी वापसी नहीं होगी। लेकिन मेरी एक ताकत मेरी जिद भी है। जिद में आकर मैंने अंतिम प्रयास किया और तैरता हुआ किसी तरह किनारे तक पहुंचा। उसदिन लगा कि मैं तैर सकता हूं, लेकिन गहराई में जाने में अज भी मुझे डर लगता है।



वह नदी अब सूख-सी गई है। वहां लोग अब नहाने नहीं जाते। औरतें अपने कपड़े फिंचने नहीं जाती। बालकिशुन मल्लाह अब नाव से नदी पार कराने के एवज में अनाज मांगने नहीं आते। अब नदी उदास-उदास दिखती है। हमारे जवान होने तक वह अब बूढ़ी हो चुकी है। नदी मर रही है और हम सिर्फ उसे देख भर रहे हैं। वह धर्मावती नदी जब नहीं रहेगी तो मैं अपने बच्चों से कहूंगा कि यहां एक नदी बहा करती थी और हमारे उस कहने की पीड़ा को शायद उस समय मेरे बच्चे नहीं समझेंगे।

गंगा जी दूर थीं जिसे हमारे बाबा भागड़ कहते थे। गंगा नदी हमें छोड़कर चली गई थीं और अब भागड़ रह गया था। गंगा जी के भाग जाने के कारण शायद उसका नाम भागड़ पड़ा था। हमारे बार वहीं उतरे थे। नदी को मापने के लिए बाध की रस्सी पकड़ हम गंगा के उस पार पहली बार गए थे । हम और मेरे बड़े भाई। मल्लाह से कहकर हमने गंगा के बीच में झिझिली खेली थी। बहनों ने गीत गाया था - मल्हवा रे तनिए सा झिझिली खेलाउ -। .. पूरी नौका गांव की औरतों से भरी हुई थी और पानी के बीच में गीत गूंज रहा था। वह गीत आज भी कभी-कभी मेरे कानों में गूंजता है. आज जब उस गंगा के किनारे से गुजरता हूं तो अनायास ही मेरे हाथ प्रणाम की मुद्रा में उठ आते हैं। मैं खुद को अब तक रोक नहीं पाया। रोकने की कोशिश भी नहीं की।

वह गंगा नहीं थी। गंगा का पानी सिर्फ बाढ़ के समय सावन-भादो में आता था। लेकिन पूरे साल हमारे लिए वही गंगा नदी थी। हमारी सारी रश्में वहीं होती थीं। मुर्दे फूंके जाते थे। तीज-जिऊतिया में औरते उसी के किनारे गीत गाते हुए-नहाते हुए अपने व्रत-उपवास पूरा करती थीं। उसी के किनारे कथा का आयोजन होता था। कई बार चईता-बिरहा और दुगोला का भी आयोजन होता।

वह गंगा नहीं थी लेकिन लोग उसे गंगा की तरह ही पूजते-आंछते थे। वह भागड़ भी अब सूखने के कगार पर है। और हम उसे सूखते मिटते हुए देख रहे हैं। मैं हर बार मन ही मन उस गंगिया माई को प्रणाम करता हूं। उसने हमें पानी दिया। हमें तैरना सिखाया। हमसे बेघर होकर भी कैसे रहा जाता है, वह सिखाया। यहां हुगली को रोज पार करता हूं, लेकिन वह श्रद्धा वह हूक मेरे मन में नहीं उठती जो उस सूख रही गंगा के लिए उठती है। 

कविता कहीं नहीं थी।  बस यही सब था जो जमा पूंजी था। आज भी कथा-कहानी के नाम पर वही सब है जिसे मैं हर रोज घर में या घर से निकलने के बाद जतन से बटोरता चलता हूं...।

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