किस दिन ऐसा जाता है कि मन उदास नहीं होता.. क्या यह मेरे साहित्य से जुड़ने के कारण है या फिर उसके कारण जो मैं करना चाहता हूं और अब तक नहीं कर पाया हूं। अपनी लिखी एक कविता पढ़ता हूं और उदास हो जाता हूं - यह सोचकर चिढ़ भी होती है कि प्यारे क्या वकवास लिख दिया। ऐसी कविताएं लिखकर क्या साबित करना चाहते हो तुम खुद को।
कविता संग्रह एक देश और मेरे हुए लोग छपकर आने वाला है, माया मृग के लागातार संपर्क में हूं। बार-बार पूछता हुआ कि कवर पाइनल हुआ या नहीं। बार-बार सुनता हुआ कि आप चिंता न करें पाइनल होने पर आपको मैं मेल कर दूंगा। फिर-फिर कुछ देर बाद वही सवाल। मेरे अंदर इन सब चीजों के लिए धैर्य क्यों नहीं है।
यह जानते हुए कि कवर अब तक नहीं आया होगा ..मैं बार बार मेल के इनबॉक्स में जाकर उसे ढूंढ़ता हूं - इस किताब या पहले की भी आने वाली किताब के पहले मन बच्चे की तरह अस्थिर और अधैर्य क्यों हो जाता है।
नील कमल से बात हो रही थी - पहली किताब के बाद यह दूसरी किताब जल्दी आ रही है।
तीसरी और जल्दी आएगी - मैं कहता हूं।
वाह, यह हुई न धोनी की पारी - नील कमल उत्साहित हैं।
लेकिन मैं थोड़ा उदास हो जाता हूं - भाई किताब आनी महत्वपूर्ण नहीं है, यह भी हो कि यह लोगों को पसंद आए, लोग उसपर ढंग से बात करें। वरना तो किताब आती रहे और सेल्फों में सजती रहे, तो क्या मतलब है ऐसे और इस तरह किताबों के आने का।
हिन्दी आलोचना व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के घेरे में कैद है भाई - ये नील कमल हैं।
मैं इस दुनिया में रहते हुए कई बार उदास हो जाता हूं। - मैं कहता हूं।
कविता संग्रह एक देश और मेरे हुए लोग छपकर आने वाला है, माया मृग के लागातार संपर्क में हूं। बार-बार पूछता हुआ कि कवर पाइनल हुआ या नहीं। बार-बार सुनता हुआ कि आप चिंता न करें पाइनल होने पर आपको मैं मेल कर दूंगा। फिर-फिर कुछ देर बाद वही सवाल। मेरे अंदर इन सब चीजों के लिए धैर्य क्यों नहीं है।
यह जानते हुए कि कवर अब तक नहीं आया होगा ..मैं बार बार मेल के इनबॉक्स में जाकर उसे ढूंढ़ता हूं - इस किताब या पहले की भी आने वाली किताब के पहले मन बच्चे की तरह अस्थिर और अधैर्य क्यों हो जाता है।
नील कमल से बात हो रही थी - पहली किताब के बाद यह दूसरी किताब जल्दी आ रही है।
तीसरी और जल्दी आएगी - मैं कहता हूं।
वाह, यह हुई न धोनी की पारी - नील कमल उत्साहित हैं।
लेकिन मैं थोड़ा उदास हो जाता हूं - भाई किताब आनी महत्वपूर्ण नहीं है, यह भी हो कि यह लोगों को पसंद आए, लोग उसपर ढंग से बात करें। वरना तो किताब आती रहे और सेल्फों में सजती रहे, तो क्या मतलब है ऐसे और इस तरह किताबों के आने का।
हिन्दी आलोचना व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के घेरे में कैद है भाई - ये नील कमल हैं।
मैं इस दुनिया में रहते हुए कई बार उदास हो जाता हूं। - मैं कहता हूं।
-आलोचना
की स्वस्थ संस्कृति नहीं है हिन्दी में जो
है, वह जोड़ तोड़ ज्यादा
है
-जी, वही.... इसलिए ही कई बार निराशा होती
है... अब अपना कोई गुट नहीं.... अपने लोग भी कहां हैं इस दुनिया में जिधर आंख उठाकर देखें तो साहस
मिले.....
लेकिन इन सबके बीच हम इस एक बात पर सहमत होते हैं कि हमें अपना काम करना है - बस वही है हमारे हाथ में।
फिर भी उदासी है कि कम होने का नाम नहीं लेती।
1 comment:
सच कहा | ऐसी उद्विगनता प्राय: होती ही है
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