Thursday, June 26, 2014

एक गुमनाम लेखक की डायरी- 40

आज कविता को लेकर विजयेन्द्र जी से बात हुई। मैंने अपनी चिंताएं उनके सामने रखीं। कि मैं अपनी कविताओं से भयंकर तरीके से असंतुष्ट हूं। यह असंतोष इसलिए है कि वह कविता मैं नहीं लिख पा रहा हूं - जिसे लिखना चाहता हूं।
विजयेन्द्र जी ने कहा कि अपने पीछे के लेखन की तरफ मत देखो - आगे की ओर देखो। एक बात जो उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कही वह कि  अहंकार, आत्ममुग्धता और वैचारिक अनिश्चय कवि की आंतरिकता को खा जाते हैं।
मैं अगर अपनी बात कहूं तो लेखक के रूप में मेरे अंदर अहंकार तो हई नहीं, और इस तरह मैं आत्ममुग्ध भी नहीं। अब तीसरी बात वैचारिक अनिश्चय की है।  मैं किसी खास पार्टी या विचारधारा से नहीं जुड़ा। लेकिन बचपन से अब तक अपनी एक विचारधारा तो मैंने निर्मित कर ही ली है। उस विचारधारा को भले ही मैं कोई नाम न दे पाऊं - लेकिन वह अंदर कहीं है। आदमीयत को मैंने सबसे पहले रखा है - मेरे लिए जाति वंश सम्प्रदाय का कोई मोल नहीं है। मेरे लिए सबसे पहले आदमीयत की बात आती है ।

लेकिन मन कभी-कभी अनिश्चय के गर्त में चला जाता है। कि क्या मुझे किसी खास विचारधारा से जुड़ना चाहिए। लेखकों के जो संगठन हैं - उनमें मेरा विश्वास नहीं। कई तरह के जो लेखक संघ हैं उनमें भी ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिनका लेखन से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। 

तो ऐसे में एक निजस्व विचारधारा को लेकर साहित्य या कविता की दुनिया में सक्रिय रहना क्या बुरा है। यह विचारधारा भी समय के साथ परिवतित होती रहती है लेकिन मेरा दृढ़ मत है कि वह परिवर्तन भी समाज और मनुष्य के सरोकार से साकारात्मक तौर पर जुड़ा हो, तभी उसका कोई अर्थ है।

किसी भी समय में मनुष्य सबसे पहले है - चाहे कविता हो, विचारधारा हो या अन्य कोई और कला। सबार उपरे मानुष ताहार उपरे नाई।


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