Sunday, October 7, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 28

इस बीच कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें याद कर लेना जरूरी है। नामवर जी ने मेरी कविता संग्रह पर अच्छी बातें कहीं। उसी संग्रह का बांग्ला अनुवाद मिस्टी दे ने  भेजा। मां से बहुत दिनों बाद बात हुई, मैंने उसके लिए एक साड़ी खरीदी। जिऊतिया का पर्व है आज। हर साल इस त्योहार के दिन अपनी मां के लिए मैं स्वयं साड़ी खरीदता हूं। वह बीमार रहती हैं, मैं हर बार यह व्रत करने से उन्हें रोकता हूं, लेकिन हर बार निष्फल होता हूं।

इस व्रत के बारे में कोई खास जानकारी मेरे पास उपलब्ध नहीं है। जो याद है, वह यह कि इसे गांव में खर जिउतिया कहा जाता है। खर से तात्यर्य यहां यह है कि इस दिन व्रत करने वाला पानी और अन्न तो क्या कोई खर भी अपने मुंह में नहीं डाल सकता। इसे हमारे यहां लगभग सबसे कठिन व्रत कहा जाता है, जो मां अपनी संतान की खुशी और उनकी लंबी उम्र के लिए करती है। बहुत  पहले इस दिन हम आजी के साथ गंगा जी जाते थे, गंगा जी वही जो अब गंगा जी न रहकर भागड़ बन चुकी हैं। गीत गाती हुई समूह में गांव की स्त्रियां गंगा तक जाती थीं, स्नान करने के बाद नए वस्त्र धारण करती थीं और एक गोलाई बनाकर बैठती थीं और कई तरह की कथाएं सुनाती थीं जिनमें इस व्रत की महत्ता प्रतिपादित की गई होती थी। मेरे लिए गंगा जी जाने का एक खास आकर्षण ये कथाएं हुआ करती थीं ।

मुझे लगता है कि जिउतिया शब्द द्वितीया से आया होगा क्योंकि यह व्रत द्वितीया के दिन ही किया जाता है प्रायः। 

तब यह व्रत मेरे लिए खास था, कि उसके एक दिन पहले घर में पूआ-पुड़ी बनती थी और एक खास चीज जो बनता था वह था ओठंगन। यह ओठंगन आटे का बना हुआ ठेकुए के आकार का ही होता था जिसे मां या आजी बना कर चूल्हे के साथ ओठंगा देती थीं। लेकिन यह एक अजीब बात यह थी कि इसे लड़कियां नहीं खा सकती थीं। हर पुरूष के लिए एक ओठंगन बनता था लड़कियों के लिए न बनता था और न उन्हें यह खाने की इजाजत ही थी।

उस समय भी मेरे मन में यह पश्न उठता था - कि क्यों ओठगन लड़कियां नहीं खा सकतीं।
आजी कहतीं - अगर लड़कियां इन्हें खा लें तो उनकी मूछें निकल आती हैं।

आज सोचता हूं तो लगता है कि यह लड़कियों को डराने वाली ही बात थी, और यह केवल आजी की बात नहीं थी, मेरे पूरे इलाके में यह प्रचलित था कि जो लड़कियां ओठंगन खा लेती थीं, उनकी मूछें निकल आने की संभावना बढ़ जाती थी। 

मां या आजी यह पर्व सिर्फ लड़कों (बेटों) की सलामती के लिए करती थीं।  मां के जितने लड़के होते थे उतनी ही सोने की जिउतिया बनवाई जाती थी, और पूजा अर्चना के बाद  प्रत्येक मां उसे धारण करती थीं। 

आज भी मां जिउतिया पहनेंगी जो बहुत पहले बचपन के दिनों में मेरे पैदा होने साथ ही बनवायी गई थी, आज अपने गले से निकाल कर मां मुझे वह जिउतिया मुझे भी पहनाएंगी, और मैं उन कई जिउतिया में से अपनी जिउतिया नहीं पहचान पाऊंगा और मां से पूछूंगा कि इनमें मेरी जिऊतिया कौन है। मां जानती हैं कि मेरा दूसरा सवाल यह होगा कि बड़ी दीदी या मझली दीदी की जिउतिया तुम क्यों नहीं पहनतीं। और मां हमेशा की तरह कहेंगी कि लड़कियों के लिए जिउतिया नहीं पहनी जाती।

और फिर आज मैं कई सवालों के घेरे में कैद हो जाऊंगा कि इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कोई मां  लड़की की खुशी और सलामती के लिए कोई व्रत क्यों नहीं करतीं, या जिउतिया क्यों नहीं पहनतीं।

मैं इन सवालों के घेरे में कैद इतिहास की कई सुरंगों में घंसता चला जाऊंगा और जब लौटूंगा तो बहुत उदास और थका-हारा। लौट कर अपने छोटे भाई की बेटी के पास जाऊंगा और अपने हिस्से का ओठंगन चुपके से उसे खिलाऊंगा और हिदायत दूंगा कि ये बात किसी से न कहना...। और उसे गोद में लेकर छत पर टहलने निकल जाऊंगा.....।

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