केदार पर लिखते हुए कुछ बातें मन में साफ हुईं। कुछ प्रश्न भी उभरे।
प्रश्नों के बिना क्या जीवन की कल्पना की जा सकती हैं ?
जरा सोचिए कि हमारे मतिष्क का वह सिरा अलग कर दिया जाए जिसमें प्रश्न उभरते हैं, तो हम कैसे हो जाएंगे।
हम चुपचाप सुनेंगे - ढेर सारी किताबें पढ़ेंगे - लेकिन हमारे जेहन में कोई प्रश्न उभर कर नहीं आएगा।
वह कैसी स्थिति होगी - प्रश्नों के बिना हम कैसे?
प्रश्नों के बिना क्या जीवन की कल्पना की जा सकती हैं ?
जरा सोचिए कि हमारे मतिष्क का वह सिरा अलग कर दिया जाए जिसमें प्रश्न उभरते हैं, तो हम कैसे हो जाएंगे।
हम चुपचाप सुनेंगे - ढेर सारी किताबें पढ़ेंगे - लेकिन हमारे जेहन में कोई प्रश्न उभर कर नहीं आएगा।
वह कैसी स्थिति होगी - प्रश्नों के बिना हम कैसे?
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